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मुंशी प्रेमचन्द का आलेख 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति'

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प्रेमचंद साम्प्रदायिकता अपने लिए खाद पानी जुटाने का काम हमेशा से संस्कृति के नाम पर करती आयी है । यह आज की समस्या नहीं है बल्कि नाजीवाद और फासीवाद के समय भी यह प्रवृत्ति जोर शोर से दिखायी पड़ी थी । मुंशी प्रेमचंद ने साम्प्रदायिकता और संस्कृति के इस सम्बन्ध को ले कर एक आलेख लिखा था । आज के समय में भी यह आलेख अत्यन्त प्रासंगिक है । तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मुंशी प्रेमचंद का यह सामयिक निबंध ।       साम्प्रदायिकता और संस्कृति प्रेमचंद  साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्क...

शैलेन्द्र चौहान का आलेख 'बाबा नागार्जुन का भाव-बोध'

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बाबा नागार्जुन   अपने पुरखे कवियों की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम बाबा नागार्जुन ने जिस शिद्दत के साथ किया वह अपने-आप में बेजोड़ और अलहदा है. उनकी कविताएँ भारतीय जन-मानस की कविताएँ हैं जिनमें व्यंग के सहारे बहुत कुछ कह देने की क्षमता होती है. विषय बिल्कुल अपनी धरती के हैं. एक से एक नायाब विषय.  तात्कालिक घटनाओं को आधार बना कर बाबा ने जितनी यादगार कविताएँ लिखीं उतनी शायद ही किसी ने लिखीं हों. आज बाबा नागार्जुन का जन्मदिन है. जन्मदिन पर बाबा को नमन करते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शैलेन्द्र चौहान का आलेख 'बाबा नागार्जुन का भाव-बोध'. तो आइए पढ़ते हैं शैलेन्द्र चौहान का यह महत्वपूर्ण आलेख.    बाबा नागार्जुन का भाव-बोध शैलेन्द्र चौहान बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़ कर देखा गया है। वैसे, यदि जरा और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई ...

यासुनारी कावाबाटा की जापानी कहानी "द मोल" का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद 'मस्सा' (अनुवाद : सुशांत सुप्रिय)

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यासुनारी कावाबाटा आज पहली बार पर प्रस्तुत है यासुनारी कावाबाटा की जापानी कहानी "द मोल" का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद. हिन्दी में अनुवाद किया है कवि सुशांत सुप्रिय ने.   मस्सा मूल कहानी : यासुनारी कावाबाटा (अनुवाद : सुशांत सुप्रिय)   कल रात मुझे उस मस्से के बारे में सपना आया। ' मस्सा ' शब्द के ज़िक्र मात्र से तुम मेरा मतलब समझ गए होगे। कितनी बार तुमने उस मस्से की वजह से मुझे डाँटा है। वह मेरे दाएँ कंधे पर है या यूँ कहें कि मेरी पीठ पर ऊपर की ओर है। " इसका आकार बड़ा होता जा रहा है। और खेलो इससे। जल्दी ही इसमें से अंकुर निकलने लगेंगे।" तुम मुझे यह कह कर छेड़ते , लेकिन जैसा तुम कहते थे , वह एक बड़े आकार का मस्सा था , गोल और उभरा हुआ। बचपन में मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने इस मस्से से खेलती रहती। जब पहली बार तुमने इसे देखा तो मुझे कितनी शर्मिंदगी महसूस हुई थी। मैं रोई भी थी और मुझे तुम्हारा हैरान होना याद है। " उसे मत छुओ। तुम उसे जितना छुओगी , वह उतना ही बड़ा होता जाएगा।" मेरी माँ भी मुझे इसी वजह से अक्सर डाँटत...