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रजत कृष्ण |
एक अजीब सी विडम्बना है कि अन्न उपजा कर देश दुनिया को जीवन देने वाले किसान खुद कर्ज के ऐसे जंजाल में उलझ जाते हैं कि उन्हें आत्महत्या की राह चुननी पड़ती है। इन किसानों के सामने ऐसी परिस्थितियां खड़ी कर दी जाती हैं कि उनके सामने कोई विकल्प ही नहीं बचता। मौसम की मार से जूझने वाले, टिड्डी दलों के हमलों का सामना करने वाले, आवारा पशुओं की आवारगी सहन करने वाले किसान सूदाखोरों और दलालों के आगे बेवश नजर आते हैं। अब तो माफियाओं, ठेकेदारों और दलालों की नजरें किसानों की जमीनों पर हैं। किसानों से बीघे के भाव जमीन खरीद कर प्लाटिंग कर रहे हैं और वही जमीन ये दलाल वर्ग फुट और वर्ग मीटर में बेच कर बेहिसाब लाभ कमा रहे हैं। किसान बस देखता रह जाता है। कवि रजत कृष्ण किसान किया स्थिति से भलीभांति अवगत हैं और उसे अपनी कविताओं में दर्ज करते करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रजत कृष्ण की कुछ बिल्कुल नई कविताएँ।
रजत कृष्ण की कविताएँ
दिवाली में दौआ राम
धनतेरस के दो दिन पहले ही
सोने-चांदी की दुकान में
मिल गया दौआ राम!
पास के ही गाँव सोनापुटी से
त्यौहारी खरीदी करने आए
दत्तवा राम से जै जोहार के बीच
पूछा जब हाल-चाल
खेती-बारी, घर दुआर का
थोड़ी देर अवश रहा वह..
और फिर झोले से
एक पोटली हेरते हेरते ही
बोल पड़ा वह.... अकाल में त्यौहार पहाड़ जइसे
आए हैं गुरुजी...
का बताओं का लुकाओं.....
घर वाली के करधन बेच करके
बाल-बच्चों के कपड़ा-लत्ता
फौउद-फटाक खरीदना है...!
खरीदी करके
मैं लौट आया घर
और दिवाली की तैयारी में
लगा रहा दिन भर!
लिपाई-पुताई के बाद
अभी-अभी अपने घर को हमने
झालर से सजाया है,
दीवार खिड़की, परदा सब कुछ लकदक
चकाचक उज्जर है!
दउआ राम से मिले-भेंटे
आज पाँचवाँ दिन बीत रहा है
पर मन-प्राण से मेरे
उसका डूबता-बूझता
चेहरा वह उतारे न उतरता है!
दिन-रात झूलती है आंखों में मेरी
उसकी पत्नी का पुरखौती करधन वह
भरी दिवाली में जो ठाढ़े ठाढ़ बिकी !!
नए साल में किसान
नए साल में
बिकने से बचे रहें
तुम्हारे बचे-खुचे खेत!
बची रहें
तुम्हारी बाड़ी-बखरी में जूझ रही
मिठास साग-भाजी की!
भरे बाजार बीच
सुन्ना पड़े भविष्य के तुम्हारे कोटर में
सचर जाएँ फिर से
सुआ, हारिल और मैना!
नम हो जाएँ....हाँ नम...
इस नए साल में
एक बार फिर से
नहर का फटा दरका हुआ सीना....
बखत की कड़ी मार से
रोज पथराता गया
तुम्हारा रकत और पसीना!
आसमान का घर
मनुष्य ने आंखें खोलीं
तो उसे सबसे पहले
नीला फैला हुआ
आसमान दिखा....।
उड़ना सीखी चिड़िया
तो फड़फड़ाते हुए
उसने पुकारा
आसमान को।
खुशियों की यात्रा
शुरू होती है
आसमान की ओर
खुलती राह से।
दुख जब
हो जाता है पहाड़-सा
हम जोड़ते हैं हाथ
आसमान की ओर -
सहा नहीं जाता
अब और
दया करो हे दया निधान!
आसमान का घर
बहुत बड़ा
वहां से आती हैं
हमारे बच्चों की गेंद
परियाँ-तितलियाँ!
वहीं तो बंधे
घोड़े उस राजकुमार के
जिसकी प्रतीक्षा में
सदियों से जाग रही है
हमारी बहन-बेटियाँ!
समुद्र का अंतस
दहकता है
तो कहीं और नहीं
वह दौड़े-दौड़े
आसमान के घर जाता है।
पेड़ जब हरियाता है
स्वागत में
आसमान झुक जाता है।
रोते-बिलखते बेघरों को
जब पूछते नहीं है
हम धरती के ही जन-मन
तब आसमान
नीचे उतरता
उनके बालों पर
उंगलियां फेरता
और धपकियां दे कर
उन्हें लोरी सुनाता है।
आसमान छूने की
होड़ में
युगों-युगों से
ना जाने कितने-कितने
जतन कर रहे हैं हम
पर आसमान है
कि हर बार
हमें
हमारे कद का
अहसास कराता है।
शहर के पाँव
शहर से बहुत दूर थे
हमारे खेत।
पाँव बढ़ते-बढ़ते शहर के
पहुँच गए हैं अब
खेत के मेड़ों तक।
खेतों में किलकते धान
मातते मूंग-उड़द
जड़ से मूड़ तक काँप उठते हैं,
अचानक हो जाते हैं उदास
हमारे मेड़ पर लहराते-झूमते कांस!
खार में खड़े
तेंदू और चार ने
फलना कम कर दिया है,
ठीक से मुंजराते नहीं हैं
महुआ अब
और तोते के उस जोड़े का
कई दिनों से
कोई अता-पता नहीं है
जो हर रात हमारे आम पेड़ पर ही
करते थे वास!
सुबह-सुबह
चारा काट कर घर लौटी माँ
आज भारी मन से बता रही थी
कि खार भर में स्वच्छंद घूमते
नाग देवता!
अब कहीं नहीं दिखते
और नया-नया बिल बना रहे हैं
चूहे भी!
कल सांझ खेत से
हल-बैल लिए लौटे बाबू जी
बहुत मन टूटा दिखे,
बार-बार कुरेदने पर
खुलासा किया उन्होंने...
कि हमारे खेतों के आस-पास ही
खड़ी होने लगी है
इन दिनों
एक कार काले रंग की !!
रोटी और आँगन
रोटी बँट कर के खुश होती है
आँगन खुश होता है
एक रह कर के!
इस बखत
फिर कोई उलटना चाहता है इसे।
सावधान रहें साथियों...
चेहरा-मोहरा नया
लक्ष्य वही पुराना है!!
आत्महत्या के बीच
इस साल
देश के
अनगिनत किसानों ने
आत्महत्या कर ली।
बहुतों के कपास में
कीड़े इतने हुए
कि कीटनाशक
किसानों ने
खुद ही पी ली।
बहुतों को
प्याज-टमाटर की
अधिक उपज ने डुबोया
और महाजन के
खातों में चला गया
बेटी की नथ-बिंदिया
पत्नी का मंगल सूत्र।
बहुतों के धान को
बेमौसम बरसात ने
रह-रह कर धोया
और सूखा का
भूला-बिरसाया दर्द
हरा हो कर
उसकी आँतों में
उतर गया ....।
इस साल
बहुत से मजदूरों
बहुत से कर्मचारियों
और बहुत से
बेरोजगारों ने भी
आत्महत्या कर ली।
ऐसा नहीं
कि इनमें से
किसी ने भी
कोई कम लड़ा हो
लड़ो...
हालात से सबके सब
जी भर कर लड़े
अपनी हर लड़ाई में
वे इतने अकेले होते गये
कि जब थके तो
सिर टिकाने को
उन्हें कोई कंधा
नहीं मिला
टूटे तो
सहारा देने
कोई बाँह न मिली।
जड़ की खातिर
ओ अषाढ़ के बादल
आधे रास्ते से ही लौट रहे हो
कोई बात नहीं
कोई बात नहीं
सावन भादो की ओ काली घटाओं
कि बिना बरसे ही छोड़ रहे हो
हमारे अंगना दुवार
हमें हरियाना है
हम हरियाएँगे
अपनी जड़ बचाना है
बचाएंगे
धरती की कोख में
चुपचाप टहल रही है
हमारे हिस्से की जलधार।
रंग मजदूर, माल्या और मेरा देश
अभी-अभी हमारी बस्ती से
पुताई कर लौट रहे हैं
पुताई वाले अपने-अपने घर।
कल धनतेरस है
परसों नर्क-चौदस
फिर लक्ष्मी-पूजा और गोवर्धन का परब।
पुताई करते-करते
रंगदार हो गईं कमीजें इनकी
बता रही हैं
किन-किन रंगों के बीच
जीती है हमारी बस्ती
किन रंगों में उमंगता है देश।
पुताई कर
इस गहराती सांझ
अपने घर लौट रहे यह सभी जन
यहाँ माने जाते
बड़े हुनरमन्द पेंटर!
पर आप हम कहाँ जान पाते हैं
कभी यह कि कितने बदरंग होते हैं
इनके अपने घर ...
और उससे भी बदरंग इनका जीवन!!
पुताई कर अपने घर लौट रहे
इन रंग मजदूरों को देख कर
अक्सर मैं सोचता हूँ --
काश मेरे देश का प्रधानमंत्री
कोई मुख्यमंत्री या मंत्री ही कोई कभी
झाँक लेता इनकी आँखों में
और पूछता कि इस देश के
तमाम घरों को रँगने का ठेका
कितने में लोगे?
नहीं जानता मैं
मेरे कस्बे के ये 'पेंटर' क्या कहेंगे
कितना दाम बोलेंगे,
लेकिन मैं दावे के साथ
यह कह सकता हूँ
कि जितनी पूंजी
आज मेरे लोक-तांत्रिक देश की दीवारें
हर पाँच बरस में पचा जाती हैं
और जितना चूना 'माल्या' जैसी हस्तियाँ
देश को लगा जाती हैं
उससे लाखों कम में यह पोतेंगे
और ठीक समय पर
धो-पोंछ कर के
पूरा का पूरा घर -दुआर
लक्ष्मी-पूजा से ठीक पहले हमें सौपेंगे!!
मन के जुलाहे ने
फिर संगत की
एक ऐसे मन से
जीवन का कपास
जहाँ से विकसता है
मन से उसके
मन मेरा
चुपचाप बातें करता
पथ नया नया बुनता है
मन के हलवाहे ने
फिर जोते हल
जीवन के उस खेत में
जहाँ सिंचें सपने सारे
अन्न सा उमगते हैं
मन के चरवाहे ने
हांके गइया फिर
उस हरियल मैदान में
जहाँ के घास पात
एक एक
थान में बंधे
बछड़े की भूख
पूरा पूरा चिन्हते हैं।
पानी सा जीवन...
पहाड़ सा जीवन हो जब
पानी सा बन जाएँ
पानी ही तो चीरते आए हैं
पहाड़ों का सीना
पानी हो कर ही
मिल सकते हैं हम
दुनिया के तमाम रंगों में
गुनगुना सकते हैं
उतर पसर कर
एक एक पेड़ पौधों की जड़ों में
बुझा बुझा हो जीवन जब
पानी सा बन जाएँ
बिजली का बाना धर कर
अँधेरे के पोर पोर में जगमगाएँ!
पवन
मनुष्य के
कण्ठ से
पहला शब्द फूटा
तो उसे
पेड़ पक्षी पर्वत झील
झरने और समुद्र के हृदय तकने
पहुँचाया पवन ने।
मनुष्य ने फूँका शंख
तो पवन ने
उसे नाद दी।
बनाया ढोल-मृदंग
तो थाप दी।
पवन ने दिशा दी
उस पहले तीर को
जिसे मनुष्य ने
सिरजते ही
छोड़ दिया था शून्य में।
मनुष्य की राह
लम्बी होती गई
थकान से टूटने लगा वह
तो पवन ने उसे
घोड़े पर बैठाया
जिसकी टापों की गूँज में
दर्ज है
मनुष्य की सुदीर्घ गाथा।
मनुष्य ने
आसमान में उड़ने
यान की कल्पना की
तो पवन उसे
पीठ पर साजा।
सोचा चाँद पर जाने की
मंगल तो
जीवन बीज ढूँढ़ लाने की
तो वह
हँसी-ख़ुशी घुमा लाया।
सड़क पर गतिमान
तुम्हारी हमारी साईकल को
पवन की दरकार
पवन के लाड़-दुलार से
घूमती है
हमारे बच्चों की फिरकनी
थिरकती है कठपुतली
पवन की तरंग को
इधर खूब साधा है हमने
अभी-अभी मैने
घर बैठे ही
सुदूर बस्तर के
अपने कवि मित्र से
बात की
उसके सुख दुख को जाना।
बस एक बटन दबाया
और स्वयं को
विश्व-ग्राम में
बड़ा पाया।
मनुष्य के पत्थर बन जाने में
कोई बहुत वक़्त नहीं लगता
यह सिर्फ़ पवन जानता है
जो हमारी साँसो को
नम रखता
और जीवन की जड़ मे
रंग-गंध सींचता है।
आग
आग से हमारा रिश्ता
उतना ही जीवन्त
और गहरा है
जितना कि पेड़ पवन और पानी से
पेड़ पवन और पानी की तरह
आग भी देवता होता है
यह बताते हुए
चेताती रहतीं हैं दादी नानी
आग चूल्हे की
कभी बुझे नहीं
ख्याल रखना आग बुझे नहीं
किसी भी सीने की।
आग के महाकुण्ड में
पक कर ही
नारंगी की तरह
गोल सुन्दर हुई है
हमारी धरती।
आग में तप कर ही
खरा होता है
हमारी ज़िन्दगी का सोना
असल रूप धरता है
क़िस्मत का लोहा।
आग से
हमने पानी को उबकाया
तो दुनिया की पटरी पर
दौड़ी पहली रेल गाड़ी।
कुम्हार के आँवे को सुलगाया
तो हमें
पकी हण्डी, मटकी
और सुराही मिली,
मिले ईंट खपरे
खिलौने और गमले।
गृहणी के हाथ में
आग जब पहुँची
हमने अन्न की मिठास को
भरपूर जाना....!
गोरसी में
शिशु देह की सेंकाई के लिए
जब सिपची वह
हमने माँ के गर्भ की
दहक के मर्म को पहचाना।
आग की जोड़ का सम्वेदनशील
दुनिया में कौन होगा
जो बुझने के बाद भी
राख के ढेर में
धड़कती रहती है।
एक ही फूँक से
जो दहक उठती है।
तब आग की
एक लपट ही बहुत होती है
जब शासक की धमनियों में
पसर जाता है ठण्डापन
जुड़ा जाते हैं विचार।
मैं धूप का टुकड़ा नहीं
मैं धूप का टुकड़ा नहीं जो
आँगन में फुदक कर लौट जाऊँगा
मैं तो धरती के प्राँगण में खुल कर खेलूँगा
चौकड़ी भरूँगा हिरनी-सा वन-प्रान्तर में
नापूँगा पहाड़ों की दुर्गम चोटियाँ
अँधेरे को नाथ कर चाँद से बातें करूँगा
मेरी रगों में सूर्य के जाए
अन्नदाता का ख़ून है
मेरी जड़ों में गर्माहट है
महानदी की कोख की
ग्रीष्म हो बारिश हो या सर्दी
देह की ठण्डी परतें तोड़
पसीना ओगराऊँगा
मैं धूप का टुकड़ा नहीं
जो आँगन में फुदक कर लौट जाऊँगा ।
आँसू की कविता
दुःख से
गहरी तुम्हारी नातेदारी
पर उमड़ पड़ते हो
प्रायः खुशी में भी तुम
तुम रंगरेज वह जनमजात
रिश्ते के रेशों को
जो रंगत देते हो!
हुनरमंद बड़े दर्जी तुम
महीन ताग से
फटा मन सबका सीते हो
छोड़ना न कभी
किसी के जीवन का घाट-घटोंदा
तुमसे ही तो
पथराती दुनिया में
ज़रूरत भर नमी बची है....!
दीवाली का दीया
जिस कमरे में
अंतिम साँसें गिन रहे हैं बाबा
घर में वह सबसे अँधेरा है
शुरू करो वहीँ से
दीवाली का दीया बारना
दीया रख आना फिर
अपने विधवापन पर
धारे धार रो रही काकी के कमरे में
एक दीया रखो
वहाँ जाम पेड़ के नीचे
एक भाई के बंद बक्से पर
एक बहन की गौना वाली पेटी पर
बाड़ी बखरी में
दुआर कोठार में
चाहे जहां रखो दीया
पर एक बचा लेना
घर की देहरी में रखने
कि आते जाते
जगमग दिखे हरेक चेहरा
कटे मन का अंधेरा!
*********
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9755352532
अच्छी कविताएं हैं। एक साथ पढ़ने को मिलीं। बढ़िया।
जवाब देंहटाएंपवन करण
हटाएंरजत कृष्ण मेरे प्रिय कवि हैं। कई दिनों बाद उन्हें पढ़ कर अच्छा लगा। उन्हें बधाई और संतोष भैया को धन्यवाद, प्रस्तुति के लिए। इन कविताओं में अभिव्यक्त संवेदना तीक्ष्ण है और सत्ता के किसानी चरित्र का समानांतर पाठ भी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं