विजेंद्र

हिमाचल प्रदेश से देवेन्द्र गुप्ता के सम्पादन में एक पत्रिका छपती है - सेतु। इसका  जुलाई-दिसम्बर 2012 अंक कवि विजेन्द्र पर केन्द्रित है। इस अंक में विजेन्द्र जी की कविता पर मेरा भी एक आलेख है- ‘समय की लहरें हर पल मुझसे टकराती हैं।’ इस लेख पर बिल्कुल अभी अभी कवि विजेन्द्र का एक आत्मीयता पूर्ण पत्र मुझे ई-मेल पर प्राप्त हुआ। चूकि पत्र में कविता के बहाने और उसके उपर विजेन्द्र जी ने बहुत सारगर्भित बातें की हैं अतः इस पत्र को मैं पहली बार के पाठकों के लिए ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हॅू। हर बार की तरह इस बार भी आपकी बेशकीमती प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा तो रहेगी ही। 


विजेंद्र                                                                                                                     
c/o - R N Mani
B-1, 801 Mahendra Chloris
Near D P School
Faridabad
Hariyana

                                                                                          
प्रिय संतोष ,                                 
तुम्हारे आलेख को ‘सेतु’ में  पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कवि का विश्लेषण पेशेवर आलोचकों से भिन्न होता है। तलस्पर्शी भी। तुमने मेरी लोक निष्ठा और राजनीतिक प्रतिबद्धता को बहुत कुछ साफ करने का यत्न किया है। यह मेरे लिये प्रसन्नता की बात है । तुमने कवि रिल्के का एक वाक्य तथा उसका अनुवाद दिया है, ‘यदि कला अंतर्मन में नहीं उपजी तो उसे छोड़ देने के लिये तैयार हो जाओ और इसका आकलन अपने भीतर जाकर स्वयं करो, किसी अन्य की आलोचना से प्रभावित मत हो। और दूसरे को प्रभावित करने के लिये लेखन मत करो’। हमारे भाववादी- कलावादी मन को ऐसी अमूर्त बातें बहुत अच्छी लगती हैं। पर जब हम उनका तर्कपूर्ण विश्लेषण करते हैं तो उनकी विसंगतियाँ और निरर्थकता सामने आती है। किसी भी कला के जीवन स्रोत बाहर होते हैं। अंतर्मन में नहीं। यह कह कर क्या रिल्के शायद कला की स्वतःस्फूर्तता पर जोर दे रहे हैं। कोई भी कला पूरी तरह स्वतःस्फूर्त नहीं होती। बाहरी उत्प्रेरण से ही कवि पहले संवेदना के स्तर पर प्रेरित होता है। यह भी स्वतःस्फूर्तता का स्तर नहीं है। यह संवेदना का प्रथम सोपान है। अनुभव का कच्चा खनिज। इससे प्रेरित होकर यदि कोई लिखता है तो वह प्रतिक्रिया भर होगी। रचना नहीं। संवेदना का प्रथम सोपान कच्चा और दिशाहीन होता है। लगता है हम स्वतः स्फूर्त होकर लिख रहे हैं। पर हम सिर्फ घटना के प्रति प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं। इस प्रतिक्रिया के कच्चेपन से बचने के लिये हमें संवेदना के प्रथम सोपान को बुध्दिगत बनाना बहुत जरूरी है। दूसरे शब्दों में कच्चे अनुभव को पूर्ववर्ती अनुवभों से एकात्म कर उसे पुनर्गठित करना पड़ता है। यह संवेदना का दूसरा सोपान है। पहले सोपान से गुणात्मक रूप से भिन्न और उच्च स्तर का । हम स्थूल से सूक्ष्म की और बढ़े हैं। वस्तु से अंतर्वस्तु की ओर। अब पुनर्गठित अनुभव को पुनः व्यवहार में लाने के लिये हमें उपयुकत भाषा की खोज करनी होगी। कवि को देखना पड़ता है कि जिस भाषा में अपनी बात कह रहा है वह जन समूह को मेरी बात संप्रेषित कर पायेगी या नहीं । यदि नहीं तो मुझे अभी और प्रतीक्षा करना होगी। यही नहीं वह उसे अपने चित्त में धारण कर पाने की स्थिति में होगा या नहीं। यह सब बातें कवि के मन में उन्मथित होती रहती हैं। अंतर्मन और वस्तुजगत की टकराहटें हम सुनते हैं।

मुझे लगता है स्वतःस्फूर्तता या रिल्के के शब्दानुसार ‘कला का  अंतर्मन में उपजना’ एक काल्पनिक सोच है।  कलावादी-भाववादी रूमानी गीतकार या छायावादी मिजाज़ के कवि इस तरह की स्वतःस्फूर्तता की बात करते रहते हैं। जब मैंने लिखना प्रारंभ किया तो मैं भी इस शब्द से बहुत आतंकित था। पर बाद में मुझे लगा कि जिसे हम स्वतःस्फूर्तता या ‘कला का अंतर्मन में उपजना’ कहते हैं वह एक काल्पनिक सोच है। कवि कर्म कभी पूर्णतः स्वतःस्फूर्त नहीं होता। न उसके अंतर्मन में कला उपजती है। उसके स्रोत सदा बाहर हैं। कविता श्रेष्ठ श्रम का उत्कृष्ट तथा विरल उत्पादन है । बाहरी वस्तुजगत को ही हम अनुभव के स्तर पर आत्मपरक बनाते हैं। या कहें वह आत्मपरक हो जाता है। अंतर्मन की बात कलावादी -रूपवादी बहुत करते हैं। इससे उनको दो लाभ हैं। एक तो कविता के लिये वे मनमानी छूट लेते हैं - स्वत:स्फूर्तता के नाम पर। दूसरे, भयावह सामाजिक यथार्थ से बच जाते हैं । क्योंकि आप कह ही रहे हैं कि यदि कला अंतर्मन में नहीं उपजी तो कला होगी ही नहीं । अंग्रेजी के ‘ऐस्थीट्स’ भी ऐसी बातें करके कला को अपने ‘ड्राइंगरूम की शोभा’ बनाते रहे हैं। आखिर कौन जाये वन बीहड़ों में ठोकरें खाने को । भयाभय यथार्थ का सामना करने को । अंग्रेजी के महान रोमेंटिक कवि विलियम वर्डस्वर्थ का तो सिध्दांत ही है ,

Poetry is spontaneous overflow of powerful feelings.

पर वर्डस्वर्थ स्वयं इस सिध्दांत का निर्वाह नहीं कर पाये। उनकी प्रदीर्ध तथा चिंतनपरक कवितायें प्रचलित अर्थ में न तो स्वतःस्फूर्त हैं। न सिर्फ अंतर्मन में उपजी है। उन्होंने बड़ी लंबी और कठिन यात्रा तय की है। तो फिर स्वत: स्फूर्तता का आज क्या अभिप्राय हो सकता है। मेरे विचार से इसका अर्थ होगा संवेदना के तीसरे सोपान पर पहुँच कर सहज तथा अर्थवान कविता रचना। इसका दूसरा अर्थ हो सकता है सहजता से अपेक्षाकृत सरल भाषा में अपनी बात कहना। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू, मुक्तिबोध की अपेक्षा इस अर्थ में अधिक स्वतःस्फूर्त हैं। केशव की अपेक्षा तुलसी अधिक स्वतः स्फूर्त हैं। ध्यान रहे अंतर्मन सवयं में कोई पूर्णतः सवायत्त तथा निरपेक्ष सत्ता नहीं है। वह बाहरी जगत का प्रतिबिंबन ही तो है। बहुत पहले हमारे यहाँ उपनिषद् में कहा गया है, ‘ सर्वम् जगत प्राणे एजति’ यानि यह समूचा जगत हमारे चित्त में झिलमिलाता रहता है। इससे अंतर्मन की स्थिति और साफ होती है । अंर्तमन बना ही बाहरी वस्तुजगत से है ।

दूसरी बात रिल्के ने कही है , अपनी रचना का, ‘आकलन अपने भीतर स्वयं जा कर करो।' यह फिर वैसी ही बात है जो ऊपर कही गई। कविता की परख कवि स्वयं नहीं करता। नहीं करनी चाहिये । यदि ऐसा होता तो विश्व में कही भी काव्यशास्त्र का विकास ही नहीं होता।  यह सही है कि हम  किसी अन्य की आलोचना से प्रभावित न हों । इसके लिये कोई जड़ सूत्र नहीं बनाया जा सकता। कवि आलोचना  को प्रभावित करता है। उससे प्रभावित भी होता है। हमारे यहाँ तो आलोचक को स्वामी, मित्र, शिष्य, मंत्री तथा आचार्य तक कहा गया है । यानि कवि और आलोचक के संबंध द्वंद्वपरक होते हैं। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। वही कविता का मूल्यांकन कर सकता हे। इसीलिये हमारे यहाँ उसे ‘भावक’ कहा गया हे । मैं साधक आलोचकों तथा कवियों की बात कह रहा हूँ। पेशेवर आलोचकों या कवियों की  नहीं। तीसरी बात जो रिल्के ने कही है कि , ‘दूसरों को प्रभावित करने के लिये लेखन मत करो’।  यह भी अपने आप में विसंगत है। अमूर्त भी। शब्द का जन्म ही दूसरे को प्रभावित करने के लिये हुआ है। लेनिन ने शब्द को संक्रिया कहा है। संक्रिया वह जिससे प्रभावित चीज़ प्रतिक्रिया करे। जब हम किसी की बात सुनते हैं। उसका हमारे मन पर प्रभाव होता ही है। भले ही हम उससे सहमत न हों। आखिर कविता का क्या प्रयोजन है यदि वह हमें प्रभावित न करे। हमारे अग्रज आलोचकों ने तो यहाँ तक कहा है कि उत्कृष्ट कविता हमें मानवीय सीमाओं से ऊपर उठाकर हमारे चित्त का प्रक्षालन करती है। भारत में ही नहीं पूरे योरुप में भी कविता का यह प्रयोजन बताया गया है। यही नहीं भारतीय काव्यशास्त्र तो कविता को ‘अस्त्र’ तक कहता है।  आचार्य  मम्मट ने काव्य के अनेक प्रयोजनों में एक प्रयोजन ‘शिवेतर क्षतये’ कहा है। यह सिद्धांत उन्होंने स्वयं नहीं रचा। बल्कि भारतीय महान कविता के प्रयोजनशील स्वभाव को देखकर ही रचा होगा। यदि शब्द में अर्थ है तो वह दूसरे को प्रभावित करेगा ही । कवि चाहता है उसकी बात से पाठक प्रभावित हो। उसका मन बदले। इसी अर्थ में श्रेष्ठ कविता यथास्थिति को भंग कर नई और बेहतर स्थिति पैदा करती है। उसे ऐसा करना भी चाहिये। यहाँ सवाल होगा आखिर रिल्के जैसे ख्यातनाम कवि ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं। एक तो रिल्के रूमानी कवि हैं। कविता उनके लिये अत्यंत निजी तथा गोपनीय चीज है। वह नवरहस्यवादी भी है जिनके लिये यह समाज - दुनिया - उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितना अपना ‘मन’ और आत्मा। या अपनी संपूर्ण-निरपेक्ष-कवि संलुभ स्वायत्तता। हिंदी में ऐसे कवियों की कमी नहीं जो सिर्फ अपने मन को ही सब कुछ मानते हैं । उन्हें समाज निरपेक्ष साहित्य ही वरेण्य है। रिल्के अत्यंत व्यक्तिनिष्ठ तथा रूपवादी कवि हैं। उन्हें जीवन भर तीन चीजों से ही दिलचस्पी रही है। एक तो सुंदर - रूपवान लड़कियाँ। दूसरे, सुंदर गुलाब के फूल। तीसरे, मृत्यु तथा कीमती शराब। कहा जाता हैं अंतिम दिनों में उन्होंने किसी लड़की से विवाह का प्रस्ताव किया था। पर वह संभव नहीं हो पाया। रिल्के ने खीज कर गुलाब की कँटीली टहनी से अपने हाथ को छील डाला। संक्रमण गहरा होने  से उनकी मृत्यु हो गई। रिल्के का काव्य विजन बहुत सीमित है। वह न तो उनके पूर्व हुये महाकवि गेटे के बड़े विज़न जैसा है। न उनके बाद हुये कवि ब्रेख्त के राजनीतिक विजन जैसा। रिल्के के पतनशील प्रभाव में लिखी गई हिंदी कविता में व्यक्तिनिष्ठता के वे सब तत्व पाये जाते हैं जो रिल्के की कविता में हैं। कवि केदारनाथ सिंह एक उदाहरण हैं।  कवयित्री अनामिका भी लगभग वैसी ही कवितायें लिख रही हैं। आज के अनेक कवि जाने अनजाने उनके प्रभाव को अपनी कविता में सेंत रहे हैं। ऐसी कविता लिखना बहुत सरल है। क्योंकि हम क्रूर होती सत्ता को जनता की तरफ से कोइ्र चुनौती नहीं दे रहे । न समाज में पैदा हुई उस जनशक्ति का एहसास करा रहे हैं जिससे सत्ता काँपती है । एक प्रकार से हम यथास्थिति का पोषण कर अपने चुनौतीपूर्ण समय को स्थगित कर रहे हैं जैसा रिल्के करते हैं। हमें किसी विदेशी कवि का चुनाव बहुत सोच समझ कर करना चाहिये। आखिर रिल्के को बुर्जुआ समाज इतना अधिक प्रचारित क्यों करता रहा। उसने गेटे को या ब्रेख्त को इतना अधिक प्रचारित नहीं किया। पतनशील प्रवृत्ति के कवियों को भारत में बहुत प्रचारित किया जाता है । आज की व्यवस्था यही तो चाहती है। हम पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, ब्रेख्त, लोर्का, मायोवस्की आदि कवियों की बातों को आगे क्यों नहीं बढ़ा पारहे । जबकि अपने मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये वे हमारी सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थितियों में आज अधिक प्रासंगिक हैं। इसी तरह चीन के दो हज़ार साल पुराने कवि वाइ जुई की कविता हमें नागार्जुन तथा केदार बाबू की बराबर याद दिलाती हैं। भारत में उन्हें बहुत कम लोग क्यों जानते हैं। ‘मेरी कविता के बहाने’ कुछ बात कहने को रिल्के से बात शुरू करना बहुत ही विरोधाभासी है। क्योंकि रिल्के की बात कहकर तुमने मेरी कविता के बारें में जो कहा है उसे रिल्के का कथन समर्थन नहीं दे पाता। न मेरी कविता उनके कथन को प्रमाणित करती है। तो दोनों तरह से रिल्के का कथन असंगत ही होगा। कई बार ऐसे कथन पाठक के मन में अनेक भ्रम उत्पन्न करते हैं।

    हाँ, संतोष बाबू, अपनी एक बात कहकर पत्र समाप्त करता हूँ। तुमने बड़ी अजब बात कही है, ‘कौन सा विषय कविता के दायरे में हो और किस विषय को किस गद्यात्मक स्वरूप में रख कर ही सही मायनेा में न्याय किया जा सकता है । पहले तो आजके लोकतंत्र में यह कहना ही उचित न होगा कि कविता और गद्य के विषय अलग अलग हों। क्या यह बुर्जुआ रुचि की तानाशाही नहीं है। छायावाद या रीति काल में यह मुमकिन था। कबीर ‘घर की चक्की’ तक को कविता का विषय बनाते हैं ।  निराला ने छायावादी परंपरा को भी तोड़ा। क्या पहले कभी ‘तोड़ती पत्थर’, कुकुरमुत्ता’, ‘महगू महगा रहा’,‘झीगुर डट के बोला’ ‘डिप्टी साहब आये’ आदि जैसे विषयों पर कविता संभव थी। पर महाकवि ने लीक छोड़ कर उसे संभव बनाया। ‘हरिजन गाथा’ या ‘नगई महरा’ आखिर कविता के विषय क्यों हो! यह सवाल क्यों नहीं उठाया जा सकता! केदार बाबू की कविता ‘काटो, काटो, काटो करबी’ पर भी हम प्रश्न चिन्ह लगायेंगे। मैं ने सवयं एक कविता लिखी है , मुर्दा सीने वाला’। आखिर यह भी कोई कविता का विषय है। हिंदी के गंभीर आलोचकों ने उसका स्वागत किया। मुझे आश्चर्य जरूर हुआ।  हमारे यहाँ काव्यशास्त्र की आचार्य परंपरा में ऐसा कोई विभाजन नहीं किया है।

आचार्य आनंदवर्धन ने हमें कविता के विषयों में पूरी छूट दी है । कहा है -

अपारे  काव्य  संसारे  कविरेकः प्रजापति
यथस्मै  रोचते  विश्वं तथेदम  परिवर्तते ।

यहाँ कविता के संसर को अपार कहकर आचार्य हमें काव्य कथ्य की पूरी छूट दे रहे हैं। दूसरे, यह भी कि हम उस कथ्य को अपनी रुचि के अनुसार जैसा चाहे रूपांतरित कर सकते हैं। यहाँ कविता द्वारा वस्तुजगत को रूपांतरित करने पर जोर है। हमने कथ्य की बंदिश आखिर क्यों लगाई! क्योंकि कुछ पेशेवर आलोचक तथा रूमानी तबियत के कुलीन कवि उन विषयों से भागते हैं जो हमारे जड़ सौंदर्य पर चोट करते हैं। आज साहित्य में कुलीनों तथा साहित्य के सामंतों का वर्चस्व है।  आखिर प्रेमचंद ने जिन विषयों को अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया क्या उनसे पहले उसे नहीं बनाया जा सकता था। आज हम फिर उससे क्यों दूर भाग रहे हैं। कवि के लिये कविता में उन अछूते विषयों को स्वीकृत करना पड़ता है जिन्हें हम आज तक कविता से बहिष्कृत करते आये हैं। यह काम बड़ा जोखिम उठाये नहीं किया जा सकता। उसके लिये अटूट संघर्ष पहली शर्त है। मेरे विचार से बुर्जुआ संस्कृति ने हमारे मन को इतना गहरे तक रंग दिया है कि हमें लोक के करीब जाने में ही डर लगता है। हमारे सौंदर्यबोध पर प्रभुवर्ग की अभिरुचियाँ हावी हैं। हम आभिजात्य के प्रचलित जड़ सौंदर्य को अभी तोड़ नहीं पा रहे हैं। जनता से एकात्म कहा हो पाये हैं। उसकी स्थितियों के जीवंत चित्र क्यों नहीं आ पा रहे। क्योंकि अधिकांश कवियों को भय है उनकी जनपक्षधर कविताओं को विभिन्न माध्यमों में प्रकाशन के लिये स्थान नहीं मिलेगा। सेठाश्रित रंगीन पत्रिकायें उन्हें नहीं छापेंगी। पेशेवर बुर्जआ समीक्षक उसे कविता नहीं मानेंगे। तुमने अपने आलेख में एक जगह कवि को  ‘जागरूक पहरूआ’ कहा है । यह भी कि वह  खतरनाक शक्तियों की पहचान कर नये जमाने के अनुरूप कविता लिख सकता है और जनता से संधर्ष का आहवान कर सकता है । ये बातें रिल्के के कथन के बिल्कुल प्रतिकूल हैं । खैर, इन में अनेक बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं ‘कृतिओर’ के माध्यम से या अपनी डायरियों में कहता आया हूँ। पर तुमसे इन विषयों पर लंबा संवाद नहीं हुआ। अत: तुम्हारी कुछ बातों ने चौंकाया। केशव तिवारी तथा महेश चंद्र पुनैठा के माध्यम से तुम्हारा परिचय मिला था। फोन पर बातें हुई । पर वहाँ बातें साफ नहीं हो पाती । गद्य में किसी कवि की दृष्टि समझ में आती है। मुझे कुछ आपत्तियाँ थी कुछ बातों से मेरी असहमतियाँ हैं - अतः अपने स्वभाव के अनुरूप मैं अपनी बात को कहने से रोक नहीं पाया। ऐसा मैं अपने अधिक आत्मीय जनों के साथ ही करता हूँ। यह जरूरी नहीं मेरी बातों से तुम्हरी सहमति हो ही । मैं चाहूँगा उन बातों पर गंभीरता से सोचो। आगे  चर्चा हो। मैं बाद में भी किसी भी सवाल का जवाब देने को प्रस्तुत रहूँगा। मुझे अपनी गलतियों को सुधारने का अवसर मिलेगा। युवा लोगों से संवाद करने से यही लाभ होता है। कवि को अंत तक सीखने की प्रक्रिया से गुज़रते रहने की जरूरत होती है। मुझे उम्मीद है इसे तुम अन्यथा न लोगे।
कुछ दिनों पहले मैं ने तुम्हारे अनहद पत्रिका-जीमेल पर कुछ कवितायें भी भेजी थीं। दरअसल में ई-मेल प्रक्रिया तथा अटैचफाइल की प्रविधि सीख रहा हू । सोचा उसी क्रम में एक पत्र भी लिख दूँ ।
प्रसन्न होगे।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
-सस्नेह
विजेंद्र

                                                                                                                       

टिप्पणियाँ

  1. तुम सौभाग्यशाली हो संतोष, कि तुम्हें यह दस्तावेज़ी महत्व का पत्र मिला. रचना के स्रोतों और प्रेरणाओं, रचना-प्रक्रिया और रचना-प्रयोजन ही नहीं शब्द की सत्ता और उसके वांछित परिणामों पर विजेंद्र जी ने उसी बेबाकी से लिखा है जिसके लिए उनकी ख्याति है. यह दूसरी बात है कि इसी बेबाकी के कारण वह बहुतेरे नाम-चीन कवियों को खटकते भी हैं.

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  2. विजेंद्र जी का यह पत्र हम सबके लिए बहुत महत्वपूर्ण है ...

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  3. YAH PATRA KAVITA KE PRAYOJAN , KATTHYA , SHILP OR BHASHA KO LEKAR KUCHH JAROORI PRASHN UTHATA HAI JIN PAR EK JANPAKSHEEY KAVI KO JAROOR VICHAR KARANA CHAHIYE.

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  4. इस पत्र में विजेंद्र जी ने अपनी पुरानी धारणाओं को ही व्‍यक्‍त या कि पुष्‍ट किया है। ... बड़े और अच्‍छे कवियों को पतनशील कहना मुझे उचित नहीं लगता, जैसे कलावादी हमेशा मार्क्‍सवादियों को केजीबी का एजेंट कहकर गालियां देते रहते हैं। हर बड़ा कवि हमें बहुत कुछ सिखाता है, यह आप पर है कि आप सीखते क्‍या हैं...

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  5. kavita par bandish ya jabardasti kala paksh ka dabaaw uchit nahi hai.vishay vastu bhi kavi ki dharna,prerna,vastusthiti,kriya,prtikriya,bhaw, vichar,desh -kal- paristhiti par nirbhar karti hai.apne itihas,virasat ko dekhkar,samajhkar hame garv hai,lekin aaj ka sahity srijan kis tarah ho yah ham logon par nirbhar karta hai.aaj soor,tulsi jaisa sahity likha nahi ja sakta aur na hi uski jaroorat hogi.

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  6. kavita par bandish ya jabardasti kala paksh ka dabaaw uchit nahi hai.vishay vastu bhi kavi ki dharna,prerna,vastusthiti,kriya,prtikriya,bhaw, vichar,desh -kal- paristhiti par nirbhar karti hai.apne itihas,virasat ko dekhkar,samajhkar hame garv hai,lekin aaj ka sahity srijan kis tarah ho yah ham logon par nirbhar karta hai.aaj soor,tulsi jaisa sahity likha nahi ja sakta aur na hi uski jaroorat hogi.

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  7. विजेंद्र जी बडे कवि हैं और बडे इंसान भी. रिल्के से मैं कभी प्रभावित न हो सका, किंतु विजेंद्रजी से भी रिल्के के सम्बन्ध में पूरी तरह सहमत नहीं हूं. साहित्य में कला और जनवाद की इतनी स्पष्ट विभाजन रेखा मैं स्वीकार करने के लिये अभी तैयार नहीं हूं. किसी तरह की तानाशाही साहित्य में क्यों हो? अगर कलावाद की नहीं तो जनवाद की ही क्यों हो? किंतु इस पत्र में ढेर सारी ऐसी बातें हैं जो सीखने की ज़रूरत है. आलोचक को भी लेखक से सीखने की ज़रूरत है मगर लेखक का मुंह देखकर लिखने वाला आलोचक आलोचक नहीं भांड होता है, इस अंतर को हर हाल में याद रखना चाहिये.

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  8. विजेंद्र जी ने रिल्के के बहाने से बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं ,लेकिन वे उन लोगों के लिए ही अर्थवान हैं जो कविता और जीवन में एक बड़ा और गंभीर रिश्ता मानते हैं और अपने व्यवहार से उसको प्रमाणित भी करते हैं |ये बातें उन लोगों को बहुत बुरी और व्यर्थ लग सकती हैं , जो आज भी अपने प्रगतिशील चेहरे के भीतर कला की कीमियागीरी में ज्यादा विश्वास रखकर कविता करते हैं |उनको कला और जनवादी अंतर्वस्तु वाली कविताओं में जनवाद से ज्यादा कलावादी रूप-विधान इसलिए भी प्रभावित करता है क्योंकि तुरत चर्चा और तुरत प्रसिद्धी मिलने की सहूलियत यहीं रहती है |उस जनवाद का क्या फायदा जहां कवि को लम्बी उपेक्षा और कुछ साधनापरक जीवन जीने की जरूरत रहती है | जो केवल कविता में ही जीवन-मूल्यों की डींग नहीं हांकता बल्कि अपने जीवन व्यवहार से भी उनको कुछ जीकर दिखलाता है |जो कला बिना जीवन के अंतर्मन में उपज जाय ,,उसमें परिश्रमी , मानवीय तथा साफ-सुथरा जीवन जीने की शर्त से भी कवि बच जाता है |कलावाद के होकर आप मनचाहा मूल्यरहित जीवन जी सकते हैं वहाँ सभी तरह की छूट होती है जब कि मेहनतकश जन के साथ रहने में असुविधाओं और उपेक्षाओं के जंगल से गुजरना पड़ता है | कलावाद में गडबडझाले की कला बहुत चलती है और एक क्रूर अवसरवाद की जगह भी निकल आती है | कलावाद के साथ रहने में सबसे बड़ा फायदा बुर्जुआ समाज और पूंजी के खुले बाज़ार में कबड्डी खेलते रहने की छूट मिलना भी है | व्यक्ति-स्वातंत्र्य के वितान के नीचे आ जाने से अनेक तरह के अख्तियार पाने के अवसर सहज प्राप्त हो जाते है | जैसे जनवाद की एक पूरी जीवन व्यवस्था और जीवन पद्धति होती है वैसे ही कलावाद की भी | ऐसे लोग मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनों को एक तराजू में तोलने की कला भी जानते हैं और जिन्दगी भर तेरी भी जय जय और मेरी भी जय का राग अलापते हैं |ये कबीर का उदाहरण तो देंगे ,लेकिन उनके ' दुखिया दास कबीर ' की पूरी तरह अनदेखी करके | वे इस बात पर गौर नहीं फरमाते कि आखिर अच्छा -खासा चादर बुनकर कमाई करने वाला कबीर स्वयं को दुखिया क्यों मानता है ?

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  10. विजेन्द्रजी का पत्र बहुत से उन सवालों को उद्घाटित करता है तो न केवल एक कवि के लिए ज़रूरी है, बल्कि एक रचनाकार के लिए बहुत सी चिंतन सामग्री छोड़कर जाता है. मुझे लगता है की रिल्के के साथ विजेंद्र की कविता पर बातचीत करना ही असंगत है. रिल्के के बारे में विजेन्द्रजी का मूल्यांकन एकदम सही है. मुझे लगता है इसमें एक प्रमुख और पुराना सवाल "कला किसके लिए" तो है ही, साथ ही 'कविता क्या है और किसके लिए है' जैसे सवाल भी उभरकर आते हैं. कविता का असल में क्या प्रयोजन है, यह जाने और विचार किए बगैर कविता पर बात करना बेमानी है. अगर हम इन सवालों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ विचार करें तो, यह तय है कि रिल्के जैसे रूमानी कवि ओंधे गिरते नज़र आएंगे.
    मुझे लगता है कविता के बारे में की जाने वाली कलात्मक रुझान की ऐसी बहुत सी बातों के पीछे की राजनीति को समझाना ज़रूरी है. कलावाद और पूंजीवाद के रिश्तों को समझना भी उतना ही ज़रूरी है.

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  11. एक बात और संतोषजी ....
    विजेन्द्रजी की डायरियों ( कवि की अंतर्यात्रा, धरती के अदृश्य दृश्य एवं सतह के नीचे) को पढ़ना सिर्फ़ डायरी को पढ़ना नहीं है. विजेन्द्रजी की डायरी में दर्ज हर टिप्पणी में हमें कविता मिलेगी. उसके बहुत से मूलभूत सन्दर्भ मिलेंगे.
    मुझे लगता है ये डायरियां हर कवि को पढ़ना चाहिए.

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