आशीष सिंह का आलेख 'जीवन की खातिर लगातार जीवन से संघर्ष करती कहानी'
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अमरकांत |
'जीवन की खातिर लगातार जीवन से संघर्ष करती कहानी'
आशीष सिंह
एक लम्बे समय बाद भी कोई कहानी चर्चा करने लायक क्यों बनी रह सकती है? इसकी तमाम वजहों में से कुछ वजहें समझ में आती हैं।
1. कोई कहानी अपने समय में ऐसा क्या जोड़ती है जिन वज़हों से उसकी बात की जानी चाहिए?
2. क्या वह कहानी अपने समय काल को पार करते हुए आज भी प्रासंगिक है, अपनी विषयवस्तु के चलते या प्रस्तुतिकरण के ढंग-ढर्रे के चलते?
3. क्या उस कहानी पर बात किये बगैर कहानीकार के दृष्टिकोण व दिशा-बोध पर मुकम्मल बात सम्भव नही है?
इन बिंदुओं को एक साथ समेट कर क्या हम कह सकते हैं कि पात्र, प्रस्तुति, विषय व परिस्थितियों का सम्यक सम्मिलन, बुनावट आदि तमाम वजहें हो सकती हैं जब किसी कहानी को फिर-फिर याद किया जाये। सबसे बड़ी जरूरत है उक्त कहानी में उपस्थित जीवन का रूप, जद्दोजहद, जो कालांतर में भी अपनी निरंतरता बनाए हुए है। दरअसल किसी रचना की सामयिकता जांचने के लिए उसमें उपस्थित सामाजिक चेतना यानी परिवेश बोध, पात्र की चेतना और लेखक की चेतना की त्रिकोणीय मौजूदगी तलाशने की कोशिश की जाती है। इस सबके बावजूद कोई रचना किन्हीं फार्मूलों के अनुपालन से नहीं जनमती बल्कि हर लेखक का अनुभव-जगत व दृष्टि सबसे अहम भूमिका निभाती है। अनुभव जगत का दायरा, लेखक का परिवेश व रचना-दृष्टि रचना के रूप को गढ़ने में खास भूमिका निभाती है। नई कहानी आंदोलन के तमाम कहानीकारों की सम्मिलित कथा भूमि इसकी साफ़-साफ गवाही देती मिलती है। एक तरफ सामाजिक जीवन का प्रत्यक्षदर्शी चित्रण, मुहावरों, उपमाओं के साथ मनुष्य की परिस्थितियों की तस्वीरें हैं तो दूसरी तरफ आत्मनिष्ठ, काव्यात्मक छवियां, क्रियाओं, परिस्थितियों से ज्यादा प्रतीक, बिम्ब पात्रों की मन:स्थिति का भान कराती हैं। नई कहानी के आधुनिक भाव बोध का संस्पर्श करने के लिए एक कहानीकार किन स्रोतों की ओर अपनी दीठि जमाता होगा? किस जीवन से सम्वाद करता होगा? क्या इस सवाल को भी चर्चा के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं?
नई कहानी आंदोलन के बारे में एक बात अक्सर दुहराईं जाती है कि आजादी के बाद लिखी गई कहानियों में उम्मीदों, सपनों, के चकनाचूर होने व मोहभंग की छाया परिलक्षित होती है। एक जगह तक यह बात गौरतलब हो सकती है लेकिन इस चीज़ पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाना चाहिये। किसी रचना में सामाजिक विडम्बनाओं व मानवीय त्रासदियों की समग्र तस्वीर तात्कालिक अभिव्यक्ति के तौर पर कम आती है। यह कहते हुए मुझे 'दाग दाग उजाला' व 'आज जीत की रात' व टोबा टेक सिंह जैसी अनेकानेक रचनाएं ध्यान में हैं लेकिन यह भी ध्यान रहे कि 'पार्टीशन' की त्रासदियों को ले कर 'तमस', 'सूखा बरगद' जैसी तमाम रचनाएं एक लम्बे अरसे बाद सामने आयीं। खुद अमरकान्त का उपन्यास 'इन्हीं हथियारों से' जैसी रचना भी, जो कि सन् 1942 के पृष्ठभूमि को उठाती हुई आम जनजीवन की भागीदारी व दुविधाओं की निशानदेही करती है।
समाज में कैसी शक्तियां राजनीतिक तौर पर, सामाजिक तौर पर अपनी जगह बना रही हैं इसकी धुंधली तस्वीरें हमें प्रेमचंद की कहानियों व निराला जैसे कवियों की रचनाओं में भी दीखने लगती हैं। फिलहाल यहां इस विषय पर बातचीत करने का मौका नहीं। साहित्य में अपने समय-काल की तमाम ध्वनियां अलग-अलग कोणों, बुनावट व भाषा विन्यास के साथ सामने आती हैं। रचनाकार की सामाजिक-वैचारिक पृष्ठभूमि भी एक जरूरी भूमिका निभाती है। प्रेमचंद , विश्वभर नाथ कौशिक, राधाकृष्ण जैसे कहानीकार जिन मूर्त सामाजिक प्रश्नों व ठेठ जीवन के यथार्थ व मनुष्य की त्रासदी को अपनी रचना का विषय बनाते हैं उस दिशा में 'नई कहानी' आंदोलन के कई एक कहानीकार रचनारत दिखाई देते हैं। ऊब, संत्रास, अकेलेपन के बीच निज की पहचान तलाशते शहरी पृष्ठभूमि से कहानीकारों और निम्नमध्यवर्गीय जीवन, कस्बाई, ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि से आते कहानीकारों के विषय चयन व भाव बोध में इस बारीक विभाजन को परिलक्षित किया जा सकता है। कहानी के साहित्यिक इतिहास में हो रहे इस परिवर्तन को कहानी से घटती/ बढ़ती जनरुचि के वर्गीय स्वरूप में देखने पर सम्भव है कुछ नये निष्कर्ष सामने प्रकट हों। नई कहानी के व्यक्तिनिष्ठ दौर में भी भैरव प्रसाद प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, मार्कण्डेय, शिव प्रसाद सिंह, अमरकांत जैसे लेखक 'आधुनिक भारत' को सामान्य जन की निगाह से देखने व हो रहे 'परिवर्तन की प्रक्रिया' को अपने कथा पात्रों, विषय व वस्तुस्थिति के जरिए दर्ज करते मिलते हैं। ये कथाकार मुख्यधारा में न हो कर भी 'पथ विचलन' का शिकार नहीं होते हैं। आम जीवन को संबोधित विषयवस्तु ही नहीं उसकी वाहक भाषा-विन्यास में भी उस हिन्दी की बुनावट, रूप, मुहावरे व रुपकों के प्रयोग में महसूस किया जा सकता है।
हिन्दी कहानी का एक जरूरी पड़ाव औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुए मुल्क, समाज में रचे जा रहे नये साहित्य के निर्माण काल को माना जाता है। हालांकि यह 'नयापन' महज़ इसलिए इस्तेमाल कर लिया जा रहा है कि बात कहने में सुभीता रहे। ठेठ राजनीतिक परिवर्तन और समाज की आन्तरिक गतिकी तद्जनित संवेदना को दर्ज़ करते साहित्य की राजनीति सीमाओं का अतिक्रमण करती चलती है। इसी में इसकी व्यापक राजनीति छुपी रहती है। नई कहानी आंदोलन के कहानीकारों में भैरव प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, मार्कण्डेय के साथ चौथा नाम प्रमुखता से लिया जाता है। सबके पास अपनी एक ऐसी कहानी जरूर है जिसका नाम लेते ही पाठक के जेहन में कथाकार का नाम दस्तक देने लगता है। 'कोसी का घटवार' (शेखर जोशी), हंसा जाइ अकेला '(मार्कण्डेय), कर्मनाशा की हार, (शिवप्रसाद सिंह), तो 'जिन्दगी और जोंक' के लेखक अमरकांत।
'जिंदगी और जोंक' अमरकान्त की मशहूर कहानी है। इस कहानी के बारे में अमरकान्त के समकालीन कहानीकार व कथा आलोचक में शायद ही कोई हो जिसने अपनी बात साझा न की हो। श्रीपत राय, विजय मोहन सिंह, राजेन्द्र यादव, सुरेन्द्र चौधरी, के अलावा विश्वनाथ त्रिपाठी, मार्कण्डेय, जैसे कई एक नाम हैं जिनने इस कहानी की तारीफ या मजम्मत कभी न कभी जरूर की है। हमारे सामने भी 'जिंदगी और जोंक' पुनः उपस्थित है। लिखे जाने के करीब सत्तर साल बाद भी गर किसी कहानी का पुनर्पाठ हो रहा हो, पुनर्विलोकन हो रहा हो यह कहानी की अपनी जीवनी शक्ति का नतीजा ही हो सकती है। कहा जाता है किसी रचना के प्रकाश में आने के बाद रचना का अपना जीवन शुरू होता है वह लेखक से मुक्त हो जाती है। 'जिंदगी और जोंक' एक ऐसी ही रचना है। हिन्दी के तमाम पाठकों की निगाह से यह कहानी गुजर चुकी है। किसी कहानी का कथासार कहानी का विकल्प नहीं हो सकती और न ही मेरी निगाह में इसकी जरूरत है। कुछ जरूरी बातें साझा करने के बाद कहानी का एक मोटा-मोटी रेखांकन साझा करना इस आलेख की जरूरत है।
'जिंदगी और जोंक' कहानी का मुख्य चरित्र 'रजुआ' है। यह कहानी सबसे पहले उपेन्द्र नाथ अश्क द्वारा सम्पादित पत्रिका 'संकेत' में प्रकाशित हुई। जहां तक जानकारी है इस कहानी का प्रकाशन काल सन् 1958 है। 'संकेत' में प्रकाशनार्थ आयी इस कहानी का शीर्षक 'मौत का कार्ड' था जिसे लेखक से सलाह ले कर सम्पादक ने नया शीर्षक दिया - 'जिंदगी और जोंक'।
कोई रचना किसी लेखक के इर्द-गिर्द कितने बरसों से दस्तक दे रही होती है उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। 'जिंदगी और जोंक' का नायक रजुआ भी ऐसा ही चरित्र है जो लेखक के साथ सन् 1942 के बाद से ही चिपटा रहा। अमरकांत किशोर काल से ही भारत को ब्रितानियों से मुक्त कराने के लिए प्रयासरत नौजवानों के सम्पर्क में आ गये थे। सन् 1942 के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और गांधी के क्रांतिकारी आह्वान ने अमरकांत को बदलती राजनीतिक परिस्थितियों, उसकी खामियों व आम जनता की जिंदगी की दुश्वारियों को निकट से देखने का मौका मिला। वे अपने तमाम अनुभवों, दृश्यों व घटनाओं को अपनी डायरी में उतार लेते थे। 'अपने आत्मकथ्य में एक जगह वे लिखते हैं - "उन्हीं दिनों उसने अपने समाज और उसके इतिहास का एक अत्यंत वीभत्स रूप देखा। युद्ध के दिनों में जब नौकर-चाकर फौज में भर्ती हो गए थे, रजुआ पता नहीं किस बिल से निकल कर आता था। काला, भुजंग, नाटा, गंदा, बदबूदार, डरपोक, हास्यास्पद, हर स्थिति में जीने वाला, आत्मसमर्पण वाली होशियारी से हर स्थिति को स्वीकार करने वाला - एक प्रतिशत इन्सान। आधा फीसदी नम्बर तो मनुष्य शरीर मिलने से ही मिल जाता है और शेष आधा फीसदी में आत्म अधिकार, चेतना, भावनाएं आदि हैं। सदियों से उसे इतिहास ने इतना ही दिया है और उसी पूंजी को कलेजे से चिपकाये वह जीवित रहने का ढंग सीख गया है। समाज में ऐसा भयंकर अन्तर्विरोध क्यों है। रजुआ सपना देख सकता है। वह उसे रोज देख सकता है। घंटों उसके बारे में सोचता अपने अन्दर दूर-दूर तक देखता और चारों ओर कष्ट घोर अन्धकार में एक रोशनी टिमटिमाती नजर आती है। कैसी रोशनी थी वह! उसके अन्दर परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी थी। वर्षों वह प्रक्रिया चलती रही.. ."।
'जिंदगी और जोंक' भले ही कागज़ पर पचपन-छप्पन में उतरी हो लेकिन एक लेखक के ज़ेहन में यह 'आधा फीसदी' मनुष्य खटकता रहा। तमाम राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के बाद में तलछट की जिंदगी जीने वाले लोग का 'सामाजीकरण' कितना यंत्रणादायक होता है। रजुआ के व्यक्तित्व का उतार-चढ़ाव आजाद भारत में पनप रही 'सामाजिक चेतना' को नापने का बैरोमीटर है क्या! 'जिंदगी ओर जोंक' 'दरअसल एक गरीब, असहाय' मनुष्य' की कहानी है। -बाप, बहनें ताऊन की चपेट में आ कर नहीं रहे। रामपुर से रसड़ा होते हुए वह कथा लेखक के मुहल्ले में पहुंचा है। बाप और बहनें ताऊन का शिकार हो चुकी हैं। उसका अपना कहा जाने वाला कोई नहीं है। नितांत अकेला, नितांत असहाय। जिसका कोई नहीं उसका शोषण करने के लिए पूरा समाज उपस्थित है।
शिवनाथ, बरन की पत्नी, लेखक की पत्नी लगभग सभी उसकी बदहाली, असहायता, और भूख की कीमत वसुलते हैं। शिवनाथ बाबू जो पहली बार उसे सहायता देते हैं और मनचाहा उत्पीड़न करते हैं, उसे 'रजुआ' नाम से अभिसिंचित करते हैं। उसका असली नाम गोपाल इसलिए गोल कर दिया जाता है क्योंकि यह नाम शिवनाथ बाबू के पिता का है। इस तरह पहली बार अपने माता-पिता द्वारा दिए गए नाम से गोपाल वंचित हो कर मुहल्ले भर के लिए रजुआ बन कर रह जाता है। मुहल्ले भर के लोगों को एक ऐसा नौकर मिल जाता है जिस पर वे सब अपना मालिकाना हक़ जता सकते हैं। मारने-पीटने का बुनियादी अधिकार सबको है लेकिन यह रजुआ जब हैजे का शिकार हो कर मरने के कगार पर जा पहुंचता है तब इन सारे 'मालिकों के लिए रजुआ एक अतिरिक्त वस्तु भर रह जाता है। कथाकार जो इस कहानी में 'मैं'' के रूप में उपस्थित थोड़ी बहुत दया भावना रखता है और वही उसे अस्पताल तक पहुंचाता है। अस्पताल से वापस आ कर रजुआ फिर मुहल्ले में बने 'सामाजिक सम्बन्धों' के बीच अपनी जगह तलाशने लगता है। खुजली, कमजोरी जैसी स्थिति में वह हर दरवाजे से दुत्कारा जाता है। अन्ततः जिंदगी उसे फिर उसी खण्डहर में ला पटकती है, जहां उसने पहली बार आसरा पाया था। उससे काम लेने वाले सभी 'जीवधारियों' के लिए वह होते हुए भी नहीं होता है। लेकिन जिंदगी उसका साथ नहीं छोड़ती, न ही वह जिंदगी का। किसी तरह वह फिर उठ खड़ा होता है। जिंदगी की खोज ही में वह एक पगली को अपने साथ ले कर आता है। जिसकी खातिर वह खाने पीने की चीजें बचा कर, मांग कर व्यवस्था करता है। इसी बीच मुहल्ले का ही कोई एक शख्स पगली के साथ गलत व्यवहार करता है जिसका वह विरोध करता है, उसकी पिटाई होती है। मुहल्ले में रहने वाले बरन की पत्नी पर भरोसा कर के वह उसके पास एक-एक पैसा जमा करता जाता है। अपने जमा पैसा वापस मांगने पर वह स्त्री पैसा देने से मना कर देती है। यह पीड़ा, यह होशियारी उसे एक बार फिर तोड़ देती है। वह लगभग वैरागी बन जाता है। वह अपना बदला लेने के लिए शनि देवता की पूजा करता है, उसे भरोसा है शायद इसी से उसको ठगने वाली स्त्री सजा पाये। वह धीरे-धीरे भगत बन जाता है। रामायन की कहानियों को अपने शब्दों में बांचता फिरता है। एक बार एक कौवा उस पर बैठ गया था। लोक मान्यता है कि कौवा का सर पर बैठना अपशकुन है। वह एक लड़के को कथा लेखक के घर भेज कर चिठ्ठी लिखवाता है कि रामपुर में रहने वाले उसके चाचा को गोपाल के रहने की खबर मिल जाए। लेखक रजुआ के न रहने से दुखी भी होता है और फिर उसके जीवन की त्रासद स्थिति के बारे में सोच कर राहत महसूस करता है। दरअसल रजुआ मरा नहीं था। चलते-फिरते नर कंकाल की काली छाया सरीखे एक शाम फिर आ पहुंचता है। लेखक से अपने मरने की झूठी कहानी साझा करता है। बार-बार मरने के मुहाने से लौट आता रजुआ, तमाम प्रताड़नाओं को सहता रजुआ मरता नहीं है और न ही जिंदगी उसका दामन छोड़ती है। 'जिंदगी उससे जोंक की तरह चिपटी है वह जिंदगी से' पता नहीं!
दरअसल वह "मरना नहीं चाहता था, इसलिए जोंक की तरह जिंदगी से चिपटा रहा। लेकिन लगता है जिंदगी स्वयं जोंक-सरीखी उससे चिपकी थी और धीरे-धीरे उसके रक्त की अन्तिम बूंद भी पी गयी।"
'जिंदगी और जोंक' रजुआ के बहाने हर कीमत पर जिंदगी से हार न मानने वाले मनुष्यों की कहानी है। रजुआ एक 'केस स्टडी' की तरह यहां उपस्थित है। वर्ग वैषम्य वाले समाज में ऐसे चरित्र पाठकों के लिए अनेक सवाल लिए खड़े मिलते हैं।
रजुआ की विकट जिजीविषा और व्यक्तित्व के विकास को यह कहानी सामने लाती है। इसमें न तो नैरेटर की छवि का आदर्शीकृत रूप है और न ही किसी अन्य पात्र का। अतिरिक्त सहानुभूति या झूठी उम्मीद जगाने की जगह निर्मम तटस्थता के साथ हारे, पददलित शख्स के जीवन को कहानी पेश करती है।
कहानी शिल्प के तौर पर वे हिन्दी कहानी की प्रेमचन्दीय परम्परा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। उपमाओं व रूपकों के सहारे जैसा सादृश्य निरूपण अमरकांत अपनी कहानियों में करते हैं वह अन्यतम है। देशज उदाहरणों का ऐसा प्रयोग उन्हें लोक के अत्यंत निकट ले आता है। बिटी शब्द प्रयोग के धनी अमरकांत शब्दों पर अतिरिक्त वज़न लादे बगैर गहरा तंज करने में माहिर हैं।
(2)
सन् 1954 से कहानी यात्रा शुरू करने वाले कथाकार अमरकान्त की पहली कहानी 'इंटरव्यू' श्रीपत राय द्वारा प्रकाशित 'कहानी'' पत्रिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद उनकी चर्चित कहानियों में 'दोपहर का भोजन' और 'जिंदगी और जोंक' का नाम लिया जाता है। इन कहानियों कथा जगत में ख़ास पहचान दिलाई। करीब दर्जन भर ऐसी कहानियां उनके खाते में हैं जिनमें मध्यवर्गीय जीवन के दांव-पेंच, साम्प्रदायिकता, बेरोज़गारी, ग्रामीण परिवेश में भी सामाजिक बंधनों से जूझती और आत्म स्वातंत्र्य की राह टटोलती आधुनिक स्त्री, आदि तमाम एक विषय उनकी कहानियों में जगह पाती हैं। इन कहानियों में 'मूस', 'जोकर', 'असमर्थ हिलता हाथ', 'डिप्टी कलक्टरी', 'फर्क', 'मौत का नगर', 'बस्ती', 'मकान' आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।
'जिंदगी और जोंक' की बात करें या दूसरी कहानियों की अमरकांत अपनी हर कहानी में विषय को निष्कर्ष तक पहुंचाने की जल्दी में नहीं दिखते। एक पाठक का औत्सुक्य भाव पात्र की गहन जीवन-मीमांसा, रेखा-चित्र, सादगी भरे व्यंग्यात्मक वाक्यों के पीछे से झांकती मनुष्य की पीड़ा, बेबसी। 'रजुआ' को जब पहली बार कथा नायक देखता है उस समय खींचा गया रेखाचित्र सामने है - कथाकार ने पहली बार जब रजुआ को देखा तो वह उसे 'खंडहर में, नीम के पेड़ के नीचे, एक दुबला-पतला काला आदमी, गन्दी लुंगी में लिपटा चित्त पड़ा' मिला था, ''जैसे रात में आसमान से टपक कर बेहोश हो गया हो अथवा दक्षिण भारत का कोई भूला-भटका साधु निश्चित स्थान पा कर हवा खींच-खींच कर प्राणायाम कर रहा है।"
इस प्रथम दर्शन के बाद इस मनुष्यनुमा 'कठपुतले' को इधर-उधर 'डोल-डोल कर' एक दो मकानों के सामने चक्कर लगाते, हांफते देखते रहने के अलावा कथाकार को उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। उसका दूसरा कैरीकेचर कुछ यूं है वह - 'भिखमंगा नाटा था। गाल पिचके हुए, आंखें धंसी हुईं और छाती की हड्डियां साफ बांस की खपच्चियों की तरह दिखाई दे रही थीं। पेट नांद की तरह फूला हुआ। मार पड़ने पर वह बेतहाशा चिल्ला रहा था, "मैं बरई हूं, बरई हूं बरई हूं. ..."
पात्र के रूप दर्शन के बाद पहली बार पता चलता है कि वह जाति से 'बरई' है। उस पर चोरी का झूठा इल्जाम यह साबित करता है कि कमजोरी, अभाव के चलते वह मांग कर जरुर खा पी सकता है लेकिन चोरी नहीं कर सकता है। कहानी में रजुआ के व्यक्तित्व की पहली तस्वीर इस तरह से सामने आती है। चूंकि मोहल्ला उसे खाने को दे रहा है तो उसे अपनी निजी सम्पत्ति की तरह इस्तेमाल भी करना चाहता है। 'लोग उससे छोटा-बड़ा काम लेकर इच्छानुसार उसकी मजदूरी चुका देते। यदि उसने छोटा काम किया तो उसे बासी रोटी या भात या भुना चना या सत्तू दे दिया जाता और वह एक कोने में बैठ कर चापुड़-चापुड़ खा-फांक लेता। अगर कोई बड़ा काम कर देता तो एक जून का खाना मिल जाता, पर उसमें अनिवार्य रूप से एकाध चीज़ बासी रहती और कभी-कभी तरकारी या दाल नदारद होती। कभी भात-नमक मिल जाता, जिसे वह पानी के साथ खा जाता, कभी-कभी रोटी -अचार और कभी-कभी तो सिर्फ तरकारी ही खाने या दाल पीने को मिलती। कभी खाना न होने पर दो-चार पैसे मिल जाते या मोटा, पुराना कच्चा चावल या दाल या चार छः आलू। कभी उधार भी चलता; वह काम कर देता और उसके एवज में फिर किसी दिन कुछ-न -कुछ पा जाता।' न तो वह किसी एक घर से बंध कर रहना चाहता है और न ही समाज उसकी जिम्मेदारी लेना चाहता है बस उससे काम लेने का पूरा अधिकार रखता है।
तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज या मुहल्ले में जगह बना रहे ऐसे आदमी के बारे में लोग सबसे पहले यही जानना चाहते हैं कि यह आदमी जो हमारे घरों में आ जा रहा है। कुछ भी खा पी कर खींसे निकाल कर मुस्कराने वाला 'रजुआ' जो किसी भी जी लेना चाहता है
आखिर कहां का रहने वाला है? इसका मूल आवास कहां है? इस सवाल के उठते ही इस नाटे, काले, कठपुतला नुमा आदमी का नाम, गांव पहली बार पता चलता है। यहां एक तरफ कहानीकार निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति की वर्गीय मनोविज्ञान को सामने लाता है दूसरी तरह तलछट की जिंदगी जी रहे 'रजुआ' जैसों की मन: स्थिति भी सामने आती है।
"रामपुर में कोई है तेरा?" मैंने एक-दो क्षण उनको गौर से देखने के बाद दूसरा सवाल किया।
"नहीं मालिक, बाप और दो बहनें थीं, ताऊन में मर गयीं।" वह फिर दांत निपोर कर हंस पड़ा ।
उसके बाद मैंने कोई प्रश्न नहीं किया। हिम्मत नहीं हुई। वह फौरन वहां से सरक गया और मेरा हृदय कुछ अजीब-सी घृणा से भर उठा। उसकी खोपड़ी किसी हलवाई की दुकान पर दिन में लटकते काले गैस-लैम्प की भांति हिल-डुल रही थी। हाथ-पैर पतले, पेट अब भी हंडिया की तरह फूला हुआ और शरीर निहायत गन्दा एवं घृणित.. मेरी इच्छा हुई, जा कर बीवी से कह दूं कि इससे काम न लिया करो, यह रोगी है.. .. फिर टाल गया, क्योंकि इसमें मेरा ही घाटा था।"
अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए रजुआ मुहल्ले की औरतों से चुहल करता मिलता, बेवजह ही-ही करते या 'इनखिलाफ जिन्दाबाद। महात्मा गान्हीं की जै।' करता मिलता।
कहानी में एक बेहद मामूली शख्स का व्यक्तित्वांत्तरण और "सभ्यता" की ओर नये कदम बढ़ा रहे समाज के चरित्र में आ रहा बदलाव दिखाई देने लगता है। 'जिंदगी और जोंक' इस आन्तरिक बदलाव और बाहरी प्रदर्शन को बिना किसी अतिरिक्त कथन के दर्ज़ करती जाती है। यही सहजता उनकी कहानियों को विशिष्ट बनाती है।
(3)
हम 'नई कहानी' आंदोलन की कथा त्रयी की बात करें या कथाचतुष्टय इन सबमें अमरकान्त का कथा रंग अपनी अलग पहचान छोड़ता है। 'जिंदगी और जोंक', 'दोपहर का भोजन' अपने विषय, प्रस्तुति व गैर रोमानी भाव की वजहों से नई कहानी आंदोलन की तमाम कहानियों में विशिष्ट स्थान रखती हैं। मेरे सामने 'जिंदगी और जोंक' है। इस कहानी के पक्ष-विपक्ष को लेकर पहले भी चर्चा होती रही है। एक तरफ इसे अदम्य जीवनी शक्ति से लैस प्रेमचंद की परम्परा की कहानी कहा गया तो दूसरी तरफ जीवन के प्रति 'आस्थाहीनता' की कहानी भी कहा गया।
राजेन्द्र यादव, श्रीपत राय, शेखर जोशी, उपेन्द्र नाथ अश्क, मार्कण्डेय, विजय मोहन सिंह, सुरेन्द्र चौधरी, गिरिराज किशोर जैसे समकालीन कथा आलोचकों और कहानीकारों की राय भी इस कहानी को ले कर एक जैसी नहीं रही है। और सबसे मजेदार बात यह भी है कि आज भी जब हम आजाद भारत की हिन्दी कहानी का कोई एक प्रतिनिधि चयन सामने लाने की बात करते हैं तो इस कहानी की भी चर्चा होती ही है। 'जिंदगी और जोंक' अमरकांत की प्रतिनिधि कहानियों में से एक महत्वपूर्ण कहानी मानी जाती है। इस कहानी की खासियत क्या है? क्या सचमुच यह रचना अपने समय की प्रतिनिधि रचना है? इसे पढ़ते हुए जिस तरह का पाठकीय बोध कुछ कहने को उत्सुक कर रहा है उसे साझा करना जरूरी लग रहा है।
उपेन्द्र नाथ अश्क 'जिंदगी और जोंक' में रजुआ की 'अपराजेय जिजीविषा' को रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में वे 'जिंदगी से प्यार' (जैक लंडन), 'विपथगा' (अज्ञेय) 'दो दुखों का एक सुख'' (शैलेश मटियानी) के साथ इसे रख कर पढ़ने का आग्रह भी करते हैं।
आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी 'जिंदगी और जोंक' को 'कफन' की तरह 'परस्पर विरोधी परिस्थितियों के समाहार से उत्पन्न विश्वनीयता' की कहानी बताते हैं। 'घीसू और माधव का सजातीय पात्र 'जिंदगी और जोंक' का' रजुआ' है। जिंदगी इसको पीस रही है और यह भी इतना बेहया और जिंदगी-प्रूफ है कि उसमें से कुछ-न-कुछ रस अपने जीवन-भर को निकाल ही लेता है।' विश्वनाथ त्रिपाठी जी द्वारा लेखक अमरकांत को प्रेमचंद की परम्परा से जोड़ने की इस तरतीब को देखते हुए अनायास 'कफन' के जारी पुनर्पाठ की बहसें याद आ जाती हैं। दारुण अमानवीय स्थितियों में भी 'रजुआ' के व्यक्तित्व में जिस तरह लगातार परिवर्तन आता जाता है वह हर कुछ 'कर के' खाने में विश्वास करता है। सम्बन्धहीन होने के बावजूद नये सम्बन्धों को बनाने की कोशिश, विपरीत स्थिति में भी 'मनुष्य' बने रहने की कोशिश में 'रजुआ' 'घीसू माधव' से अलग दिखाई पड़ता है। इस कहानी में लेखक तटस्थ दृष्टा भर नहीं है बल्कि उसकी सक्रिय उपस्थिति बरकरार है। "मैं" की शक्ल में उपस्थित नैरेटर अपनी खामियों, मानवीय दुविधाओं के साथ कथा का हिस्सा है।
राजेंद्र यादव 'जिंदगी और जोंक' को ले कर आलोचनात्मक नजरिया रखते हैं। 'जिंदगी और जोंक' को व्यक्तित्व की लड़ाई से नीचे उतर कर 'अस्तित्व के लिए लड़ते लोगों की कहानियां' बताते हुए वे कहते हैं कि 'जिन्दा रहने की मुक्तिहीन मजबूरी अस्तित्व को साधे रखने के एक एक तार के टूटते जाने पर भी पीछा नहीं छोड़ती। परिचय, पहचान या आइडेंटिटी के पूरी तरह छिन जाने के बाद जिंदगी और मौत का चूहे-बिल्ली वाला गुमनाम खेल किस तरह नितांत पाशविक धरातलों और प्रयासों पर भी चलता रह सकता है, इस बात को समझने के लिए मनुष्य के न मरने में भयानक आस्था की जरूरत है। ' .. ..'जिंदगी और जोंक' तो खुद जिंदगी को चकमा दे कर जिंदा रहने की अभिशप्त नियति है। रजुआ को तो पता ही नहीं है कि उसे क्यों जिंदा रहना चाहिए और जिंदा रहना चाहिए भी या नहीं।'
राजेन्द्र यादव की नजर में अमरकांत के पात्र 'जिंदगी से चिपके' मिलते हैं। लेकिन जब वे कहते हैं कि "अमरकांत का शाय़द ही कोई पात्र अपनी नियति या स्थिति को बदलने की बात सोचता या करता हो। जहां-जहां ऐसा है वहां उठे हुए उबाल की तरह फौरन ही ठंडा हो गया है। प्रयत्न की व्यर्थता समझने वाला लेखक इस उबाल को मजाकिया अंदाज से बताता है। अभाव, पराजय, टूटने और घुटन के बीच अमरकांत का कोई भी पात्र आत्महत्या या हत्या करने की बात भी इसलिए नहीं सोचता कि वह हमेशा बहुत गहरे में दूसरों से जुड़ा है। अपवाद सिर्फ रजुआ लगता है। मैं आज तक तय नहीं कर पाया कि 'जिंदगी और जोंक' जीवन के प्रति आस्था की कहानी है या जुगुप्सा, आस्था हीनता और डिसगस्ट की।'
अस्तित्व के लिए जूझते व्यक्ति की कहानी में गर सिर्फ एक व्यक्ति प्रतीक मात्र होता तब तो कोई बात नहीं इसे 'अपवाद' मानकर आगे बढ़ा जा सकता था। नई कहानी आंदोलन की तमाम लहरों में अमरकांत सामने दिखती और बदलती दुनिया के साथ खड़े मिलते हैं। न वे आत्मकथन की स्वगत भंगिमा अंगीकार करते हैं और न ही सामाजिक दुख को नितांत निजी दायरे में, सम्बन्धों में पैबस्त कर काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते मिलते हैं। वे ठेठ भुलभुली जमीन पर पैर जमाते हुए आगे बढ़ने की कोशिश तो करते हैं लेकिन वास्तविकताओं से जूझते चकनाचूर हो रहे सपनों के बीच फिर जिंदगी की डोर तलाशते मिलते हैं। 'जिंदगी और जोंक' में जितनी ऊपरी तौर पर आस्था हीनता दिखती है उससे ज्यादा यह जिंदगी पर आस्था की शानदार कहानी है। हर बार उठ खड़ा होता रजुआ जीवन की शर्तों को पूरा करने की कोशिश ऐसे समय में कर रहा है जब मध्यवर्गीय-निम्नमध्यवर्गीय जमात अपने निज क्रोड में सिकुड़ने को आतुर है।
"बहुत दिन हो गए थे। गर्मी का मौसम था। भयंकर लू चलना शुरू हो गयी थी। छत पर मार खाने के चार-पांच दिन बाद रजुआ फिर मोहल्ले में आ कर काम करने लगा था। लेकिन उसमें एक जबरदस्त परिवर्तन यह हुआ कि उसका स्त्रियों के साथ छेड़खानी कर के गधे की भांति हिचकना-किलकना बन्द हो गया।
"रजुआ ने आजकल दाढ़ी क्यों रख छोड़ी है?" मैंने पत्नी से पूछा।
रजुआ की बात छिड़ने पर मेरी बीवी अवश्य हंस देती। मुस्करा कर उसने उत्तर दिया," आजकल वह भगत हो गया है। बरन की बहू को उसके कृत्य की सजा देने को उसने दाढ़ी बढ़ा ली है और रोजाना शनिचरी देवी पर जल चढ़ाता है। "निहायत निर्दयी और खुदगर्ज समय में रजुआ जैसे लोग समाज में कैसे जी पा रहे हैं क्या यह कहानी यह बात दर्ज कर रही है? क्या स्थिति और नियति की बात करके इस कहानी की चौहद्दी को सिकोड़ देने की कोशिश नहीं है?" कहानी में यह मात्र स्थिति की स्थापना नहीं है, इसका एक वृहत्तर प्रयोजन और अर्थ संकेत है। अपने होने की लड़ाई में उसे मानवीय सहानुभूति चाहिए। मानवीय स्वीकृति चाहिए। वह मुहल्ले में अपनी प्राणशक्ति ले कर जीवन की तमाम परिस्थितियों से संघर्ष करने के लिए जैसी तैयारी में है। अनेक छोटी-छोटी घटनाओं में यह लड़ाई बड़े सार्थक ढंग से संयोजित की गई है। व्यक्तिगत शक्तिहीनता और सामाजिक शक्ति संचय की इस दुहरी स्थिति के भीतर रजुआ का जीवन संघर्ष बल प्राप्त करता है। "( सुरेन्द्र चौधरी)
जीवन की खातिर लगातार जीवन से संघर्ष करती कहानी है 'जिंदगी और जोंक'। इसमें रजुआ की केन्द्रीय भूमिका एक ऐसे दखमा (लैम्पपोस्ट) के तौर पर है जिसकी रोशनी में समाज में घर करते अंधेरे को पहचाना जा सकता है।
नोट - जिन पुस्तकों, पत्रिकाओं को पढ़ते हुए इस कहानी को समझने का मौका मिला उसकी सूची संलग्न है -
1. अमरकान्त की सम्पूर्ण कहानियां खण्ड-1, दूसरा संस्करण, 2016 (सम्पादक -रवीन्द्र कालिया) ज्ञानपीठ प्रकाशन।
2. अमरकान्त - संकलित कहानियां , प्रथम संस्करण, 2008 (सम्पादक - विश्वनाथ त्रिपाठी) नेशनल बुक ट्रस्ट।
3. वर्ष -1, अमरकान्त, प्रथम संस्करण 1977, (सम्पादक -रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, नरेश सक्सेना) इलाहाबाद प्रेस प्रकाशन
4. हिन्दी कहानी: रचना और परिस्थिति, 2009, सुरेन्द्र चौधरी, (सम्पादक : उदय शंकर) अंतिका प्रकाशन।
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आशीष सिंह |
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आशीष सिंह
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सुन्दर आलेख। बरन-बरन के लोग इस बरई को ठगते हैं, फिर भी उसकी जिंदगी उससे लगी होती है। जिंदगी अपने आप में प्रयोग है। इसलिए हर प्रयोग का अपना महत्त्व है। ऐसे ही यह लेख भी प्रयोग है जो जिंदगी को जानने-समझने और प्रयोग के लिए प्रेरित करता है। आशीष जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर व सारगर्भित लेख
जवाब देंहटाएंज़िंदगी और जौंक कहानी पर आधारित ये लेख एक ओर अमरकान्त के कहानीकार की चिंताओं स्थापनाओं को दर्ज करता है वहीं दूसरी ओर ये लेख इस कहानी को हिंदी की प्रतिनिधि कहानी माने जाने की गहन पड़ताल करता है .रजुआ के व्यक्तित्व के अनेक आयामों में खोलने का प्रयास इसमें है. शोध की गंभीरता और तर्क की प्रखरता इसमें है आशीष जी और पहली बार को बधाई.
जवाब देंहटाएंज़िंदगी और जौंक कहानी पर आधारित ये लेख एक ओर अमरकान्त के कहानीकार की चिंताओं स्थापनाओं को दर्ज करता है वहीं दूसरी ओर ये लेख इस कहानी को हिंदी की प्रतिनिधि कहानी माने जाने की गहन पड़ताल करता है .रजुआ के व्यक्तित्व के अनेक आयामों में खोलने का प्रयास इसमें है. शोध की गंभीरता और तर्क की प्रखरता इसमें है आशीष जी और पहली बार को बधाई.
जवाब देंहटाएंप्रज्ञा.
महत्वपूर्ण आलेख।- शीला रोहेकर
जवाब देंहटाएंअमरकांत जी की बहुचर्चित कहानी 'जिंदगी और जौंक ' पर एक सारगर्भित, तथ्यपरक आलेख समीक्षा। अमरकांत जी की जन्म शताब्दी के अवसर पर इसका एक अलग महत्व है। युवा आलोचक आशीष सिंह जी को बधाई एवं शुभकामनाएं।-- -अवधेश कुमार श्रीवास्तव
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी और आशीष सिंह का आलेख दोनों महत्वपूर्ण बधाई-- नर्मदेश्वर सिंह
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