अमित भूषण द्विवेदी की कविताएं
समय सतत परिवर्तनशील है। कहते भी हैं कि सब दिन एक समान नहीं होते। एक समय की दुनिया की उन्नत सभ्यताएं आज खंडहरों में तब्दील दिखाई पड़ती हैं। एक समय के गुलजार रहने वाले दरवाजे बदलते वक्त के साथ वीरान पड़ जाते हैं। एक समय के ताकतवर वक्त बीतने पर दयनीय दिखने लगते हैं। जमाने की तमाम संकीर्णताओं और नकारात्मकताओं से हमें जूझना ही होता है। लाख बचने की कोशिशें करें, इनका सामना हमें करना ही पड़ता है। अमित भूषण द्विवेदी ने अपने अनुभवों से इसे शिद्दत से जाना और महसूस किया है। अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट करने के पश्चात अमित इन दिनों प्रधानमंत्री उत्कृष्ट महाविद्यालय अनूपपुर, मध्य प्रदेश में सहायक प्राध्यापक पद पर कार्य कर रहे हैं। अपनी कविताओं में अमित ने उन अंतर्द्वंद्वों की सूक्ष्म पड़ताल की हैं जो हमारे मन मस्तिष्क के साथ गहरे तौर पर अनुस्यूत होते हैं। इसके बावजूद कवि को खुद पर भरोसा है। वे सामने आने वाले अवरोधों की चिन्ता नहीं करते। अपनी एक कविता में वे लिखते भी हैं : 'वह मुझे हरा नहीं सकेगा/ मेरे हौसले को गिरा नहीं सकेगा।' कविता और कुछ करे न करे, जीने का हौंसला जरूर देती है, क्योंकि कविता खुद जीवन जीने का एक फलसफा ही तो है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अमित भूषण द्विवेदी की कविताएं ।
अमित भूषण की कविताएं
ठीक से सो नहीं पा रहा हूँ
जो कहना है, वह कह नहीं पा रहा हूँ।
ज़ख्म गहरे हैं, उनसे उबर नहीं पा रहा हूँ।
कोशिशें एक बार नहीं, कई बार कर रहा हूँ।
यदि कहना हो भी, तो किससे कहूँ?
कुछ लोग जो कभी बहुत अपने हुआ करते थे,
जिनसे कर लेता था मोबाइल पर चैट यदा-कदा,
कह लेता था अपनी व्यथा-कथा
सदा-सर्वदा, अब उनसे दूर जाने लगा हूँ।
रिश्ते, खून के हों या हों रिश्ते दूर के,
सबको एक ही तराजू से तौलने लगा हूँ।
मन में आए तो कर लेना मुझसे भी नफ़रत,
मैं नफ़रत और प्रेम से दूर जाने लगा हूँ।
गिरते-पड़ते, पड़ते-गिरते जैसे-तैसे ही सही,
मैं अपना काम फिर से करने लगा हूँ।
हे ईश्वर ! यदि तुम वरदान देते हो,
तो मुझे भी देना एक ऐसा वरदान,
कि अंतिम समय तक कर्तव्य-पथ पर बना रहूँ।
भले साथ हो या न हो किसी का भी,
पर मैदान में अकेले ही डंटा रहूँ।
विकल्प कोई शेष नहीं
"मैंने केवल होने दिया"
सभी के थे अपने-अपने हित,
हर चेहरा था स्वार्थ में लिप्त।
हादसे से गुज़रा मैं चुपचाप,
बस चाहता था थोड़ा सा विश्राम,
धीरे-धीरे, अपने ढंग से
करता अपना कर्म निष्काम।
पर अवसर ना मिला मुझे,
ना किसी ने दिया सहारा।
झूठा भी कोई वचन नहीं,
न कोई दिलासा प्यारा।
आश्वासन तो दूर की बात,
किसी ने दी गाली, किसी ने घात।
किसी ने पीठ पीछे खेल रचा,
जिसने निभाना था, वही छला।
जो संग थे, विश्वास तोड़ा,
किसी ने आंखों में पानी छोड़ा।
था अकेला, कोई साथ नहीं,
अपने ही संघर्ष की बात कही।
जिन्होंने दिए थे कर्ज़ कभी,
अब वही मांगने लगे सब कुछ।
कुछ ने मुंह मोड़ा, कुछ व्यस्त हुए,
संबंध सब हो गए शिथिल, बेमतलब, अधूरे।
इस सबका मुझ पर प्रभाव पड़ा,
पर कर भी क्या सकता था मैं?
विकल्प कोई शेष नहीं था,
बस चलता गया जैसे चलना था।
मेरे लिए सब थे अहम,
पर मैं किसी के लिए न था प्रथम।
इसीलिए, जो कुछ हुआ,
उसे बिना विरोध किए—
केवल हो जाने दिया।
अमंगल का शोक देखा है
अंगुल भर ज़मीन के लिए जो ताउम्र लड़ते रहे,
आज उनके भी घरों पर जंगलों का राज देखा है।
कभी साँप, कभी सियार,
तो कभी बिलगोही देखा है।
रोक दिए आसपास के लोगों की
घर से निकलने की राह,
अब उनके घरों में न जा सकने लायक रास्ता देखा है।
उन शक्तिशालियों को,
जिन्हें कभी अपनी शक्ति पर गुमान था
आज उन्हीं शक्तिशालियों की शक्ति का विनाश देखा है।
और उनके टूटे-फूटे खंडहरों में
अमंगल का शोक देखा है।
सुंदर दिखना कोई गुनाह तो नहीं
ज़माना यदि दिखावे का न होता
तो भला ये फ़िल्टर कैमरे में क्यों होता?
दिख ही जाता है जो अपना ये चेहरा
काले अथवा साँवले रंग में
तो इससे भला क्या हो जाता?
राम, श्याम के रंग भी अब
दब कर हमारी हसरतों में हो गए हैं हीन
हमारा चेहरा जैसा है यदि वह वैसा ही दिख जाता
तो भला इसका बाज़ार कहाँ होता?
सुंदर दिखना कोई गुनाह तो नहीं है,
लेकिन सुन्दरता महज़ कोई रंग तो नहीं है
समझ जाते अगर हम इस छोटे से रहस्य को
तो भला रंग बदलने से इंसान कहां इंसान होता?
मुझे मजबूत कहने वालों
मुझे मजबूत कहने वालों,
मेरे आँसू कभी नजर न आए तुम्हें
कहने को तो लोग यह भी कहते हैं
ज़माना साथ है, फिर भी तुम क्यों डरते हो!
भीड़ में सबने देखा मुझे मुस्कुराते हुए,
पर उसी भीड़ में मेरी तन्हाई नजर न आई तुम्हें।
जिन्दगी को आखिर कहते भी तो क्या कहते
जब पास हो कर भी वह पास नहीं होती।
कभी अनसुलझे धागों-सी उलझ जाती है यह,
मगर मेरा सुलझना नजर न आया तुम्हें।
पीठ पीछे बैठ कर रोज़ साजिश करते हो तुम,
पूछता हूँ क्या अपने बच्चों के लिए भी यही करोगे तुम?
मत भूलो, ऊपर बैठा वह सब देख रहा है,
जिंदगी से मेरी जंग भी नजर न आई तुम्हें।
अगर दोष देना ही जरूरी हो तो किसे दूं
जब सामने खड़ी हो पहाड़ों-सी चुनौतियाँ।
तुम्हारी अच्छाइयाँ मुबारक हों तुम्हें,
पर मेरी अच्छाइयाँ भी नजर क्यों न आई तुम्हें।
जब ज़िंदगी ही
वे लोग
जिनके शब्दों से मिलता था
बेवजह हौसला कभी
अब उन्हीं शब्दों का रूठ जाना
कमज़ोर कर जाता है अंदर तक।
यदि ज़िंदगी में
कोई एक ही कमी होती
तो उन्हें गिनवा भी देता शायद
शायद ज़िंदगी का बोझ
कुछ हल्का लगता।
लेकिन गिन-गिना कर भी
क्या हासिल होता
जब ज़िंदगी ही
स्थायी रुप से
एक कमी बन चुकी हो।
मेरे हक में
कुछ भी नहीं था मेरे हक में,
जो पाया वही था मेरे हक में।
खोने, पाने और पा सकने की बातें छोड़ ही दें,
जो नहीं पा सका,
वह नहीं था मेरे हक में।
हो सकता है कि भविष्य के क्षितिज पर
हो जाए और भी चमत्कार कई
और पा सकूं जीवन में वह सब कुछ
जो है मेरा,
तो वह भी होगा मेरे हक में।
पथ में काँटे हैं बहुत
असंभव मंजिल दूर बहुत
तीखा-मीठा सब सहना होगा
भेद-भाव भी सहना होगा
आग की राह चलना होगा
बरसात में भीग जाना होगा
पाँव के छाले सहना होगा
मगर जीतने की ज़िद हो अगर
अंधेरों में उड कर जाना होगा
ज्ञान का चक्षु खोलना होगा
आबंधों को सब तोड़ना होगा
तभी नया सवेरा होगा।
लाख यातनाओं के बाद भी
यह मुझे ठीक से पता था कि
वह मुझे परेशान करेगा,
या अंतरात्मा पर आघात कर
मुझे तोड़ देगा,
या फिर अपने जोरदार आक्रमणों से
मुझे घुटनों के बल बैठा देगा।
या अतिशय कष्ट देगा,
या अपार पीड़ा देगा,
या भारी तनाव पैदा करेगा,
या फिर मेरे चारों ओर
अवसाद तथा निराशा का जाल बुन कर
मुझे अकेला कर देगा,
मुख्यधारा से अलग कर देगा,
या फिर एक विचित्र जीवन दे देगा।
या भी हो है कि लगने लगे जैसे मैं असहाय हो गया हूं।
किन्तु,
उसे यह नहीं मालूम कि
उसके लाख यातनाओं के बाद भी,
वह मुझे हरा नहीं सकेगा,
मेरे हौसले को गिरा नहीं सकेगा।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
ई मेल : amit007bhushan@gmail.com
आदरणीय भैया को सादर धन्यवाद कि आपने पहलीबार जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉग में मेरे कविताओं को स्थान दिया है। वर्ष 2024 के बाद 2025 में भी कविताओं का प्रकाशित होना मेरे लिए सुखद है। आपके द्वारा दिए गए इस मौके और स्थान के लिए एक बार पुनः हार्दिक धन्यवाद तथा उम्मीद करता हूं ब्लॉग के पाठकों के ये अच्छा लगे।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद भैया।
वाह। बहुत सुंदर प्रस्तुति ❤️🌻
जवाब देंहटाएं