आशुतोष पार्थेश्वर का आलेख "चाँद की ‘राजनीति’ "

 

आशुतोष पार्थेश्वर 



साहित्यिक पत्रकारिता में ‘चाँद’ पत्रिका की अपनी अहम और विशिष्ट भूमिका रही है। ‘चाँद’ का प्रकाशन ही अपने आप में एक आन्दोलन की तरह था। इसके प्रकाशित किए जाने के अपने मंतव्य थे। ‘चाँद’ का फांसी अंक नवम्बर 1928 में प्रकाशित हुआ। यह अंक एक दस्तावेज की तरह है जिसमें  फांसीवाद का जम कर प्रतिकार किया गया। यह अंक स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के लिए प्रेरणास्रोत बना। हालांकि इस अंक में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रत्यक्ष तौर पर विद्रोह की बात नहीं की गई थी लेकिन इस अंक में संकलित सामग्री राष्ट्रवाद की भावना को प्रेरित करने वाली और साम्राज्यवाद का प्रतिकार करने वाली थी। इसे देखते हुए इस अंक को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। इस अंक का ऐतिहासिक महत्व इसलिए भी है कि भगत सिंह ने छद्म नाम से इस अंक में कई लेख लिखे। साहित्यिक होते हुए भी इस पत्रिका ने कई मोर्चों पर काम किया जिसमें समाज सुधार की प्रवृत्ति प्रमुख थी। ‘चांद’ पत्रिका की ऐतिहासिक भूमिका इस बात से समझी जा सकती है कि इसने कुल 29 विशेषांक प्रकाशित किए। ये सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर केन्द्रित अंक थे। 'स्‍त्री शिक्षा' और 'विधवा प्रश्न' जैसे उपेक्षित विषयों को केंद्रित करते हुए विशेषांक निकालना ‘चाँद’ की उपलब्धि थी। कहा जा सकता है कि ‘चाँद’ के प्रकाशन की अपनी राजनीति थी। गम्भीर शोध के लिए समर्पित आशुतोष पार्थेश्वर ने इसे केन्द्र में रखते हुए एक उम्दा शोध आलेख लिखा है "चाँद की ‘राजनीति’"। अपने इस आलेख में आशुतोष लिखते हैं 'हिंदी पत्रकारिता की उपलब्धियों और सीमाओं, दोनों के लिए उनकी पत्रकारिता से गुज़रना अनिवार्य है। वे राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय थे, ऐसे में संभव न था कि उनकी पत्रकारिता ‘राजनीति’ से अछूती रहती। जब उन्होंने ‘चाँद’ का प्रकाशन आरंभ किया तो उसमें राजनीतिक विषयों की उपस्थिति का सिलसिला ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ से शुरू हुआ। विभिन्न समाचार पत्रों  से इस स्तंभ के लिए समाचारों का संकलन किया जाता था। हम देखें कि वहाँ जिन समाचारों को जगह मिल रही थी, उनका चुनाव संपादक क्यों कर रहा था, साथ ही उनकी प्रस्तुति किस रूप में कर रहा था? इससे हम उस दौर के ‘बौद्धिक वर्ग’ की मानसिक निर्मिति को पढ़ पाएँगे और बीसवीं सदी के तीसरे दशक के प्रमुख सवालों, जिनमें स्त्री, देश, धर्म और जाति प्रमुख हैं, पर ‘चाँद’ की दृष्टि का मूल्यांकन कर पाएँगे।' तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आशुतोष पार्थेश्वर का आलेख "चाँद की ‘राजनीति’ "।



"चाँद की ‘राजनीति’ "



आशुतोष पार्थेश्वर 


नवंबर 1922 में इलाहाबाद से ‘चाँद’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। पत्रिका के संपादक थे–रामकृष्ण मुकुंद लघाटे। इसके पहले अंक का संपादकीय ‘हमारा उद्देश’ शीर्षक से प्रकाशित है। यह संपादकीय कहता है कि, “क‍िसी समाज में जो अन्याय फैलता है उसे दूर करने के अन्य साधनों में मुख्य तीन साधन–युद्ध, कानून और न्यायी पक्ष के मतों का प्रसार है। --- जिन लोगों के हाथ में युद्ध या कानून का का शस्त्र नहीं रहता उन्हें तीसरे साधन ही की शरण लेनी पड़ती है। उन्हें अन्याय को हटाने के लिए अपने न्यायपूर्ण मतों का प्रसार कर के बहुमत को अपने पक्ष में करना पड़ता है”1 और ‘चाँद’ का प्रकाशन इस तीसरे साधन यानी ‘न्यायपूर्ण मतों’ के प्रसार के लिए किया जा रहा है। पत्रिका के अनुसार, “चूँकि इस देश की अनेक सामाजिक कुरीतियों ने हमारे दिल पर गहरी चोट पहुँचाई थी और हमारी आत्मा बार-बार हमें इस बात के लिए प्रेरित कर रही थी कि हम अपनी तुच्छ बुद्धि से इस देश के समाज सुधारकों का हाथ बटावें अतएव हमने दो वर्ष पहिले स्त्रियों का ‘चाँद’ नामक पत्र निकालना निश्चित किया था।”2 दो वर्ष पूर्व पत्रिका का डिक्लेरेशन जमा किया जा चुका था और अंग्रेजी सरकार को यह विश्वास दिलाया गया था कि ‘चाँद’ “केवल सामाजिक तथा साहित्यिक विषयों की चर्चा करेगा। प्राचीन अथवा अर्वाचीन राजनीति से इस पत्र का कोई संबंध न होगा।”3 किंतु, अंग्रेजी सरकार इस डिक्लेरेशन मात्र से संतुष्ट न थी और पत्रिका के संचालकों से 1500 रु. की ज़मानत माँगी गई। इस बाध्यता ने पत्रिका के प्रकाशन में विलंब उत्पन्न किया। 1922 के नवंबर महीने से जब पत्रिका निकलनी शुरू हुई तो संचालकों का ‘न्यायपूर्ण मतों’ के प्रसार का अपना उद्देश्य सधता नज़र आने लगा और उसकी प्रसन्नता ‘संपादकीय विचार’ में इस प्रकार व्यक्त हुई, “चूँकि हम सरकार को 1500 रु. भेंट करने में असमर्थ सिद्ध हुए अतएव हमें पत्र प्रकाशन का विचार कुछ दिनों के लिए स्थगित कर देना पड़ा। परन्तु इस दरमियान में हमारी आत्मा किसी प्रकार शान्त न थी। हम दिन रात इसी चिन्ता में मग्न थे कि ईश्वर हमें वह दिन कब दिखलावेगा कि जब हम ‘चाँद’ द्वारा भारतीय स्त्री समाज की जो कुछ सेवा हो सके, कर सकेंगे? आज सुदैव से उस दिन का उदय हुआ है। आज हम ‘चाँद’ को इस देश की स्त्रियों के चरणों पर अर्पण करते हैं कि वे इस बालक से, जिस प्रकार की उचित सेवा लेना चाहें, लें।”4 


स्पष्ट रहे कि ‘चाँद’ ने अपने प्रकाशन का उद्देश्य क्या घोषित किया था? इस लेख का उद्देश्य यह दिखाना है कि ‘चाँद’ के संचालकों-संपादकों ने भले ही ‘प्राचीन अथवा अर्वाचीन राजनीति’ से स्वयं को दूर रखने का डिक्लेरेशन भरा हो, किंतु अपनी यात्रा के दौरान वे बार-बार इस डिक्लेरेशन को अतिक्रमित कर ‘न्यायपूर्ण मतों’ के प्रसार के लिए भारतीय राजनीति की छोटी-बड़ी हलचलों को अपने पन्नों पर जगह देते रहे। ‘चाँद’ की यात्रा असहयोग आंदोलन के पृष्ठाधार पर शुरू होती है और वहाँ से 1947 तक के विविध पड़ाव, स्वतंत्रता-संघर्ष की विविध छवियाँ, उपलब्धियाँ और सीमाएँ–‘चाँद’ में पर्याप्त उपस्थित हैं। हालाँकि, यह लेख मात्र रामरख सिंह सहगल की संपादकत्व-अवधि में प्रकाशित ‘चाँद’ पर केंद्रित है। यानी, नवंबर 1922 से अप्रैल 1931 तक। असहयोग आंदोलन के आधार से सरदार भगत सिंह और उनके साथियों की फाँसी तक। 


भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रामरख सिंह सहगल अपने संपादकीय साहस और प्रयोगों के लिए स्थायी महत्त्व के हकदार हैं। हिंदी पत्रकारिता की उपलब्धियों और सीमाओं, दोनों के लिए उनकी पत्रकारिता से गुज़रना अनिवार्य है। वे राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय थे, ऐसे में संभव न था कि उनकी पत्रकारिता ‘राजनीति’ से अछूती रहती। जब उन्होंने ‘चाँद’ का प्रकाशन आरंभ किया तो उसमें राजनीतिक विषयों की उपस्थिति का सिलसिला ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ से शुरू हुआ। विभिन्न समाचार पत्रों  से इस स्तंभ के लिए समाचारों का संकलन किया जाता था। हम देखें कि वहाँ जिन समाचारों को जगह मिल रही थी, उनका चुनाव संपादक क्यों कर रहा था, साथ ही उनकी प्रस्तुति किस रूप में कर रहा था? इससे हम उस दौर के ‘बौद्धिक वर्ग’ की मानसिक निर्मिति को पढ़ पाएँगे और बीसवीं सदी के तीसरे दशक के प्रमुख सवालों, जिनमें स्त्री, देश, धर्म और जाति प्रमुख हैं, पर ‘चाँद’ की दृष्टि का मूल्यांकन कर पाएँगे।


‘चाँद’ के नवंबर 1922 के अंक के पहले टाइटल पृष्ठ पर ‘भारतमाता’ की तस्वीर प्रकाशित हुई और दिसंबर 1922 के अंक में ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ में पहला राजनैतिक समाचार। यह समाचार किसी पुरुष, नहीं बल्कि एक स्त्री की राजनैतिक गतिविधि से जुड़ा है। पंजाब में असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण पार्वती देवी की गिरफ्तारी हुई थी। गिरफ्तारी की सूचना के साथ ‘चाँद’ ने यह भी लिखा, “बीसवीं शताब्दी में यह पहिली ही महिला हैं जिन्हें देश के लिए जेलख़ाने जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।”5 स्पष्ट है कि पार्वती देवी की गिरफ्तारी ‘चाँद’ के लिए एक सूचना मात्र नहीं है। ‘चाँद’ उस गिरफ्तारी को आदर देता है और उस ‘सौभाग्य’ का संचरण चाहता है। 


प्रथम अंक, नवंबर 1922 का कवर पृष्‍ठ ( साभार  : आर्यभाषा पुस्‍तकालय, नागरी प्रचारिणी सभा) 


इस स्तंभ में दो अन्य राजनीतिक सूचनाएँ जगह पाती हैं। एक सूचना यह है कि अब भारत की स्त्रियाँ भी ‘एक बड़ा भारी राजनैतिक आन्दोलन’ स्थित करने वाली है। अतः भारतीय स्त्रियों को इस ओर ‘सदैव सचेत रहना चाहिए’। दूसरी सूचना ‘श्रीमती कस्तूरी बाई गाँधी’ से जुड़ी हैं। सूचना यह है कि कस्तूरी बाई गाँधी दिसंबर 1922 में होने वाले स्त्रियों की कान्फ्रेंस का सभापतित्व करेंगी साथ ही लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय के ‘कन्वोकेशन’ की प्रधाना भी होंगी। इन सूचनाओं को प्रस्तुत करते हुए संपादक ने अपनी ओर से यह भी जोड़ा, “भारत अब स्त्रियों का सम्मान करना सीख रहा है।”6 बहुत स्पष्ट है कि यह ‘भारत’ पुरुष भारत है। ध्यान दें कि स्त्रियों के सम्मान का प्रश्न भारतीय राजनीति के भीतर से हल हो रहा था। उनकी सक्रियता ने उन्हें यह सम्मान दिलाया था। ये दोनों स्त्रियाँ ग़ैर हिंदी प्रदेश की थीं। एक पंजाब से और दूसरी गुजरात की। उनकी सक्रियता में उनके परिवारों की भूमिका थी। तमाम समाचारों से इन स्त्री चेहरों को चुन कर और उनकी ख़बर प्रकाशित कर ‘चाँद’ ने हिंदीभाषी समाज को संदेश देना चाहा था। 


पार्वती देवी की गिरफ्तारी की गूँज जनवरी 1923 के ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ में पुनः सुनाई देती है। उन्हें मेरठ के मजिस्ट्रेट की अदालत ने दो वर्ष के कठिन कारावास की सजा सुनाई थी। ‘चाँद’ ने अदालत में दिए उनके लिखित बयान को इस अंक में प्रकाशित किया।7 इसी स्तंभ में दिसंबर 1922 में लाहौर में हुए स्त्रियों के ‘स्वराज्य सम्मेलन’ की सूचना प्रकाशित हैं। इस सम्मेलन में लाला लाजपत राय की पत्नी राधा देवी, महात्मा गाँधी की पत्नी कस्तूरी बाई और अली बंधुओं की माता आबादी बानो बेगम ने भाग लिया था। सम्मेलन में पार्वती देवी के कारावास पर एक प्रस्ताव स्वीकृत किया गया।8 ‘चाँद’ के अनुसार वह प्रस्ताव ‘सुलभ पवित्रता और निर्भयता का सूचक’ है। उसकी ‘कामना है कि भारत का महिला समाज इसी प्रकार स्वयं अपना उद्धार करना सीखे।’ दिसंबर के अंक में संदेश देने की कोशिश की गई थी, किंतु जनवरी अंक का स्वर उससे भिन्न है। यहाँ अपेक्षा यह है कि ‘महिला समाज’ ‘स्वयं अपना उद्धार करे’। अब वह केवल समाचार नहीं है, वह उससे आगे की यात्र कर रहा है। 


इस अंक में दूसरी सूचना पूना में सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी से जुड़ी है। सजा प्राप्त पचीस सत्याग्रहियों में एक साठ वर्ष की वृद्धा भी थीं। इस सूचना को भी ‘चाँद’ ने महज़ सूचना के रूप में प्रकाशित नहीं किया। उसने अपनी ओर से यह फड़कती हुई टिप्पणी जोड़ी, “प्रातःस्मरणीय महारानी झाँसी की रानी का ख़ून अभी तक भारतीय महिलाओं की नसों में बह रहा है, यह घटना इस बात की द्योतक है।”9


इस अंक में बंबई म्यूनिसिपल चुनाव में राष्ट्रीय म्यूनिसिपल पार्टी की ओर से श्रीमती सरोजिनी नायडू और बाबू वाई आर टोलीवाला को उम्मीदवार बनाने की सूचना भी प्रकाशित है। इसके साथ दर्ज़ संपादकीय टिप्पणी भी कम मानीख़ेज़ नहीं है। टिप्पणी है, “भारतीय पुरुष समाज के दिमाग ने कुछ पलटा खाया है। इसकी सूचना इस शुभ समाचार से मिल रही है।”10


कहाँ ‘चाँद’ ने प्राचीन अथवा अर्वाचीन राजनीतिक विषयों से स्वयं को मुक्त रखने का डिक्लेरेशन भरा था और यह देखिए कि प्रकाशनारंभ होते ही उसने भारतीय राजनीति को अपने पृष्ठों पर जगह देने का सिलसिला शुरू कर दिया। महत्त्वपूर्ण यह है कि इस सिलसिले की शुरुआत स्त्री-पहचान के साथ हुई। इसके साथ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि जब ‘चाँद’ लिखता है कि भारत स्त्रियों का सम्मान करना सीख रहा है तो इस ‘भारत’ का अर्थ पुरुष भारत है। 


फरवरी 1923 के अंक में पहली बार स्त्रियों की राजनीति से इतर समाचार प्रकाशित हुए। यह समाचार चौरी-चौरा कांड में सजा की घोषणा से जुड़ा है। उससे इतर दो समाचार स्त्रियों से जुड़े हैं। एक में, कस्तूरी बाई के जेल में महात्मा गाँधी से मिलने और पूना के मुल्शी पेठा में मुल्शी-सहायक मंडल का निरीक्षण करने की सूचना है। उस विवरण के साथ यह टिप्पणी दर्ज़ है कि, “महात्मा गाँधी के कारावास में रहते हुए भी उनका स्थान खाली नहीं है। ‘अर्द्धांगिनी’ शब्द का वास्तव में यही अर्थ होना चाहिए।”11 ‘चाँद’ ने ‘अर्द्धांगिनी’ होने की अपनी कसौटी बना रखी थी! दूसरी सूचना, पुनः पूना की है। किंतु, उस ‘अर्द्धांगिनी’ भाव के ठीक विपरीत! मुल्शी पेठा के सत्याग्रहियों में छह महिलाएँ थीं। उनमें से एक जानकी बाई वालिंबे से अदालत में पूछे गए सवाल और उनके द्वारा दिए गए जवाब काबिले-ग़ौर हैं। 


सवाल-जवाब देखिए :


प्रश्न–तुम्हारा नाम क्या है?

उत्तर–मेरा नाम मनुष्य है। 

प्रश्न–पति का क्या नाम है? 

उत्तर–स्वयं मेरे मौजूद होने पर यह पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। 

प्रश्न–और ज़ात?

उत्तर–स्त्री।

प्रश्न–धंधा?

उत्तर–संसार में सच्चे काम करना।

प्रश्न–कहाँ रहती हो? 

उत्तर–पृथ्वी पर! 

प्रश्न–तुम्हें कुछ कहना है? 

उत्तर–ब्रिटिश अदालत में मुझे कुछ नहीं कहना है।12 


केवल निर्भीकता के कारण ये उत्तर महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। ब्रिटिश राज में एक स्त्री का यह साहस आकर्षक है, किंतु, उससे अधिक महत्त्वपूर्ण, उसका यह कहना है कि उसकी ज़ात ‘स्त्री’ है और स्वयं ‘उसके मौजूद होने पर’ उसके पति का नाम पूछना अर्थहीन है। यह एक क्रांतिकारी उद्घोषणा है। इस वक्तव्य के साथ ‘चाँद’ ने यह जोड़ा, 'जब तक भारतीय स्त्रियाँ इतनी निर्भीक और स्वार्थ त्यागिनी न होंगी निश्चय ही भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में एक न एक अड़चन लगी रहेगी।”13 यानी, स्त्रियों की निर्भीकता और स्वार्थ त्याग को ‘चाँद’ ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में प्रस्तावित किया। यह प्रशंसनीय है, किंतु यह प्रश्न रह गया कि ‘स्वार्थ त्याग’ से ‘चाँद’ का क्या आशय है? क्या इसे पति की पहचान से मुक्त होने के रूप में देखा जाए? परिवार, सामाजिक दबावों और तथाकथित मर्यादाओं से मुक्त होने के रूप में देखा जाए! या, मात्र लौकिक सुविधाओं के आकर्षण से दूर होना ही स्वार्थ त्याग है! 


‘चाँद’ में ऐसी ख़बरें छपती रहीं और ख़बरों के साथ टिप्पणी भी। अप्रैल 1923 के अंक में उमा नेहरू के इलाहाबाद म्यूनीसिपैलिटी और सरोजिनी नायडू के बंबई म्यूनीसिपैलिटी का सदस्य निर्वाचित होने की सूचना प्रकाशित है। ‘चाँद’ में इस ख़बर के प्रकाशित होने का महत्त्व इस टिप्पणी के कारण है, “हमें आशा है कि यह दोनों देवियाँ अपने कार्यों से यह सिद्ध कर देंगी कि स्त्रियों में भी पुरुषों के समान ही योग्यता होती है।”14 यानी, पैमाना पुरुष ही है! इस अंक में लाहौर में पार्वती देवी एवं अन्य स्त्रियों द्वारा गाँधी दिवस मनाने, खद्दर बेचने तथा तिलक स्वराज्य फंड के लिए चंदा एकत्रित करने का समाचार प्रकाशित है। अन्यान्य समाचारों के साथ एक सूचना मेरठ में आयोजित स्त्रियों की एक सभा की है। 29 मार्च 1923 को आयोजित उक्त सभा को पं. मोती लाल नेहरू ने संबोधित किया था। अपने भाषण में मोती लाल नेहरू ने पार्वती देवी, महात्मा गाँधी, खादी, चरखा आदि का जिक्र करते हुए बेहद रोचक अंदाज में स्वतंत्रता आंदोलन में अपने घर की स्त्रियों की सक्रियता का उल्लेख किया। वे कहते हैं, 'मेरी स्त्री मेरी ही तरह बुड्ढी है, परन्तु मेरे इकलौते लड़के जवाहर लाल को उसने जेल जाने से कभी नहीं रोका। बल्कि हमेशा उसकी हिम्मत बढ़ाई। मेरी स्त्री ने प्रतिज्ञा की है कि जब तक स्वराज्य नहीं होगा, हम लोग हरगिज़ जेवर न पहिनेंगे। मेरी छह वर्ष की पोती उन बच्चों के साथ कभी नहीं खेलती है जो विदेशी कपड़े पहिने होते हैं। इसका एक मात्र कारण यही है कि, वह माता-पिता तथा दादा-दादी से सदा स्वदेशी के महत्त्व की बात सुना करती है।”15 


मई-जून 1923 के अंक में भारतीय राजनीति में स्त्री की मुखर उपस्थिति की सूचना देने वाली दो ख़बरें हैं। पहली, आंध्र की सुभामा के प्रण की खबर, कि सरकार जब तक नमक से कर नहीं हटाएगी, वे नमक नहीं खाएँगी। दूसरी, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण सुभद्रा कुमारी चौहान की गिरफ्तारी और गिरफ्तारी के अगले दिन ही रिहाई की। इस अंक में पंजाब की राजनीति में श्रीमती पूरन देवी का पंजाब की स्त्रियों के नाम एक खुला उत्तेजक पत्र प्रकाशित है। आकर्षक और तीखे लहजे की यह माँग देखिए, “हम कैसी दुर्भाग्य हैं कि हमारे देश में मातृभूमि का प्रेम भी एक जुर्म है। पूजनीय देवियो, इस समय हमारे पुरुषों के साथ जेलों में जो बर्ताव हो रहा है क्या आपको उसका कुछ पता है। सख्त गरमी के दिनों में उनको कोठड़ियों में सुलाया जाता है। गली सड़ी और कीड़ों से खाई हुई सब्जी और दालें उनको खाने को मिलती हैं। सख़्त से सख़्त काम उनसे लिए जाते हैं। परंतु इस ग़म में हमें एक प्रकार की खुशी है, एक बात का मान है कि हमारे ये वीर पुरुष माथे पर त्यूड़ी चढ़ाने का नाम तक नहीं लेते, वे प्रसन्न वदन हैं। दुख का उनके चेहरे पर नामोनिशान नहीं। 



प्यारी बहनों! क्या आपने कभी सोचा है कि उनके कष्टों का कारण कौन है। मुझे आप क्षमा करें यदि मैं कहूँ कि हम ही उनको जेल में रखने का कारण हैं। हमारे ही कारण वे दुख सह रहे हैं। मेरे विचार में यदि भारतवर्ष की समस्त देवियाँ खद्दर पहनने के प्रण पर स्थिर रहतीं  देश की यह अवस्था आज कदापि न हुई होती। हमने अपना वचन पूरा नहीं किया। हम तो फिर चमकीले और रंगीले वस्त्रें को पसंद करने लगी हैं। मेरा विचार है कि मनुष्यों के खद्दर पहनने से कुछ नहीं बनेगा जब तक स्त्रियाँ खद्दर धारण नहीं करतीं। 


प्यारी बहनो! मैं आपसे क्या कहूँ। किसकी दुहाई दूँ। किसके नाम से फ़रियाद करूँ। यही फ़रियाद करती-करती मेरी बहिन पार्वती जेल में चली गईं। मेरा तो कलेजा छलनी होता है जब मैं आपको इस कदर देश से विमुख देखती हूँ। आपको अपनी सजावट की चिंता है और उधर भारतवर्ष उजड़ा जा रहा है। यह समय सुख और चैन का नहीं। ये घड़ियाँ सो कर गुज़ारने से देश का नाश हो जाएगा। मेरी बहनो! जागो और निद्रा को त्यागो। तुम पर देश का आश्रय है। आओ हिम्मत करो।---देवियो! पिछले पापों को त्यागो और आगे के लिए देश सेवा का प्रण करो। विदेशी वस्त्र को त्याग दो। विलायती वस्त्रों से डरो। ये वस्त्र ऊपर से साँप की तरह चमकीले हैं लेकिन विष से भरे हैं। संभल जाओ अन्यथा पछताओगी और यह समय हाथ नहीं आवेगा। मैंने आपको अच्छा या बुरा जो कुछ कहना था कह दिया। इसको मानना या न मानना आपके वश में है। यदि मान लिया तो देश का बेड़ा पार है। भारत स्वतंत्र हो जाएगा। आपका नाम होगा आपकी कीर्ति फैलेगी। यदि न माना तो परिणाम साफ है। आपके घूँघट उठाए जाएँगे, आपके मुँह पर थूका जाएगा। आपकी बेइज़्ज़ती होगी। आपके बच्चों को मार-मार बेहोश किया जाएगा। सोच लो क्या यह जीवन आपको स्वीकार है? मेरे विचार में तो इस जीवन से मर जाना अच्छा है।”16


‘चाँद’ में इस पत्र के साथ कोई टिप्पणी दर्ज़ नहीं है। वे टिप्पणियाँ जिनसे ‘भारत’ का अर्थ ‘पुरुष भारत’ निकलता है। प्रश्न यह है कि क्या पूरन देवी की इस चिट्ठी का स्वर उसी ‘पुरुष भारत’ के स्वर से मेल खाता है। या, इनमें कुछ अंतर है? स्त्रियों से ‘स्वार्थ त्याग’ की अपेक्षा का उल्लेख पूर्व में हुआ है। यहाँ भी अपेक्षा की गई है कि स्त्रियाँ विदेशी वस्त्रादि त्यागें। तो क्या ‘स्वार्थ त्याग’ से महज़ यही अर्थ लिया जाए। पुरुषों के त्याग और सहनशीलता का बखान भी इस पत्र में है। क्या पूरन देवी वही मानदंड स्त्रियों के लिए भी निश्चित कर रही थीं? जब वे कहती हैं कि ‘आपके घूँघट उठाए जाएँगे, आपके मुँह पर थूका जाएगा। आपकी बेइज़्ज़ती होगी। आपके बच्चों को मार-मार बेहोश किया जाएगा।’ तो यह नहीं बतातीं कि ऐसा करने वाला कौन होगा? यह अनकहा है कि वह भारतीय होगा या ब्रिटिश, किंतु वह होगा पुरुष ही! इसलिए चरखा, खद्दर और स्त्री–इस दौर में तीन बिंदु हैं जिनसे भारतीय स्वतंत्रता और स्त्री स्वतंत्रता की पहचान नत्थी हो जाती है।17 


यह पुकार और माँग धीरे-धीरे ‘समाचार संग्रह’ के स्तंभ से निकल कर मुख्य सामग्री में जगह पाने लगी। जुलाई 1923 के अंक में श्रीमती शारदा कुमारी देवी के लेख ‘भारतीय महिलाओं के कर्तव्य’ में यह पुकार इस तरह है, “हमारी माताएँ सरोजिनी नायडू, अवंतिका बाई, बी. अम्मा आदि देश कार्यों के अर्थ निरंतर प्रयत्न एवं कष्ट सहने के लिए तैयार रहती हैं। पुनः हम उन्हीं की पुत्री हो कर क्यों कर्तव्य पथ से च्युत हो जाएँ? हम क्यों न अपने को अपनी जन्मभूमि की सेवा के निमित्त बलि कर दें?”18 स्त्रियाँ अब केवल पुरुषों के उदाहरणों पर आश्रित नहीं थीं। उनके अब अपने भी आदर्श थे! वे उनका नाम ले रही थीं। हालाँकि, अभी भी वे पुरुष-आग्रहों में बँधी थीं। अपने संघर्ष और सेवा का लक्ष्य उन्होंने देश के ‘पुत्रों’19 को योग्य और समर्थ बनाना माना। इसके लिए उदाहरण महात्मा गाँधी की माँ का दिया गया। लिखा गया कि यह उनकी माँ ही थीं जिन्होंने गाँधी को दृढ़ बनाया।   


गाँधी से जुड़ा एक समाचार सितंबर-अक्टूबर 1923 के अंक में है। गाँधी तब यरवदा जेल में थे और वहाँ उनसे मिलने के लिए बंबई से 50 और पूना से 100 महिलाएँ गई थीं, किंतु उन्हें मिलने न दिया गया। इस खबर का प्रकाशन देश की राजनीति में स्त्रियों की रुचि, भागीदारी और सक्रियता को दिखाता है। साथ ही यह समाचार इसका भी उद्घाटक है कि भारतीय राजनीति में गाँधी के प्रवेश के साथ वह दौर शुरू हुआ, जिसमें स्त्रियाँ केवल भीड़ के रूप में सीमित नहीं रहीं। इस समाचार से यह भी पता चलता है कि असहयोग आंदोलन के साथ स्त्रियों में इतना तेज आ गया कि वे शीर्ष नेतृत्व से मिलने में हिचकती, सकुचाती और शरमाती नहीं।  


मार्च 1924 के अंक में खद्दर के प्रचार के संबंध में अवंतिका बाई गोखले का एक पत्र प्रकाशित है। इस अंक में कस्तूरी बाई गाँधी द्वारा कोकोनाडा में आयोजित महिलाओं के सम्मेलन में दिए भाषण को भी जगह मिली है। भाषण के साथ श्रीमती गाँधी की तस्वीर भी अंक में है। श्रीमती गाँधी जागरण का संदेश देती हैं। वे अपेक्षा जताती हैं, “प्‍यारी बहिनो! हमें याद रखना चाहिए कि हमारी मातृभूमि अपनी पुत्रियों से भी सहायता पाने की आशा रखती है। हमें अपने महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए नम्र और शुद्ध भाव तथा तन मन से काम करना चाहिए।------- अभी से सावधान हो जाओ। अपने ऊपर यह कलंक न लगने दो कि जिस भारत माता की सीता और द्रौपदी, मीराबाई, नूरजहाँ, चाँदवीबी और झाँसी की लक्ष्मी बाई जैसी पुत्रियाँ रहीं उसके अब इस ज़माने में वैसी एक भी पुत्री नहीं रही।”20 ऊपर के उदाहरण की तरह यहाँ भी स्त्रियाँ ही रोल-मॉडल के रूप में हैं। 


वे स्त्रियों की शिक्षा, शिल्पकार्य की शिक्षा, विधवा प्रश्न, अछूतोद्धार, खादी आदि विभिन्न विषयों पर अपनी बातें रखती हैं और अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए करती हैं, “हमारा प्रयत्न सफल होंगे पर न केवल स्वराज्य ही प्राप्त होगा, बल्कि संसार को इसका भी प्रमाण मिल जाएगा कि आत्मबल से ही पशुबल दबाया जा सकता है।”21 


अप्रैल 1924 के अंक में दो खबरें पंजाब से हैं। और, दोनों ही बेहद मार्मिक! पूर्व में पार्वती देवी की गिरफ्तारी का उल्लेख किया गया है। इस अंक में प्रकाशित एक ख़बर पुनः उन्हीं से जुड़ी है। समाचार यह है कि, “फर्रुख़ाबाद जेल की चारदिवारी में श्रीमती पार्वदी देवी दो वर्ष के लिए बंद हैं। उन्हें एक तो सख़्त कारागार की सज़ा है ही दूसरी बात यह है कि उन्हें चार ही बजे एक कोठरी में बंद कर दिया जाता है जिसमें वे 14 घंटे के लिए बंद रखी जाती हैं। उन्हें किसी से बात करने की आज्ञा नहीं है न अपने कमरे की सीमा पार करने की। ऐसी हालत में उनका स्वास्थ्य बहुत ही ख़राब हो गया है।”22 युक्तप्रान्त कौंसिल ने उन्हें छोड़ने का प्रस्ताव दिया, किन्तु तौ भी सरकार से उत्तर यह मिला कि किसी ऐसे कारण से जिनको सरकार नहीं बताना चाहती सरकार उन्हें नहीं छोड़ेगी।”23 ‘भला इस धृष्टता का भी कोई ठिकाना है! ‘चाँद’ ने अपनी ओर से सरकार से प्रश्न किया, ‘क्या महात्मा गाँधी से वह ज़्यादा इन्हीं से डरती है?’24 ऐसी ख़बरों को प्रस्तुत करने के दो लक्ष्य थे–एक, अंग्रेजी राज की तानाशाही पर सवाल_ दूसरा, स्त्री-नेतृत्व और उनके संघर्ष को महत्त्व। दूसरी ख़बर लाहौर की सरला देवी की है। सोलह वर्षीया इस युवती ने आजीवन खद्दर पहनने का निर्णय लिया था किंतु वह असमय मृत्यु को प्राप्त हुई। ‘चाँद’ के लिए यह एक उल्लेखनीय घटना है क्योंकि “उसने मृत्यु के पहले अपनी माँ से कहा–‘मुझे खुशी है कि ईश्वर ने मेरे खादी के व्रत को निबाह दिया। मेरे तमाम कपड़े अनाथ लड़कियों को दे देना।’ फिर उसने सतृष्ण दृष्टि से पिता की ओर देखा और धीमी आवाज में प्रार्थना की– “आप कृपा कर 100 रु. महात्मा जी को तिलक स्वराज कोष के लिए भेज देना। यही मेरी अंतिम भेंट होगी।”25 यह तड़प और त्याग, दोनों ‘चाँद’ को आकर्षित करता है। कहना न होगा, ऐसी ख़बरों की ‘चाँद’ में उपस्थिति बहुत सुविचारित थी। 


पंजाब की पार्वती देवी की गिरफ्तारी को ‘चाँद’ ने इन दिनों पर्याप्त महत्त्व दिया। मई 1924 के अंक में पुनः उनसे जुड़ी एक सूचना प्रकाशित होती है। यह सूचना गुरुदासपुर के श्री दौलत सिंह बेदी के हवाले से प्रकाशित है। श्रीमती पार्वती देवी फर्रुख़ाबाद जेल में बंद थीं और श्री बेदी अपनी बहन के साथ मिलने आए थे। बेदी साहब की बहन पार्वती देवी से मिल पाईं किंतु उन्हें मिलने की अनुमति नहीं मिली। कहा गया कि एक बार में एक ही व्यक्ति की भेंट हो सकती है। अब चाहे कोई कितनी दूर से आया हो, वह मर्द हो या औरत! “इतनी दूर से किसी स्त्री का अकेले आना असंभव है, और उनके साथ जो व्यक्ति तीस-पैंतीस रुपए खर्च कर आया हो उसके लिए बिना मिले लोट जाना असह्य है।”26 उनके तर्क और आग्रह अनसुने कर दिए गए। चोरी और डकैती में सज़ा प्राप्त लोगों से तीन-तीन व्यक्ति मिल सकते थे, किंतु सत्याग्रही से हफ्ते में कोई एक ही। यह सारा हाल बताते हुए बेदी साहब ने युक्तप्रांत के पत्र संपादकों और कौंसिल के मेंबरों का ध्यान आकृष्ट करना चाहा। बेदी साहब ने अंग्रेजी राज के इस व्यवहार के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी भी की, “उपर्युक्त व्यवहार का यह अर्थ निकलता है कि कोई स्त्रियाँ श्रीमती जी से मिलने न आया करे।”27 यानी, अब पार्वती देवी का सत्याग्रह, एक स्त्री मात्र का सत्याग्रह नहीं रह गया था, वह एक निजी संघर्ष भर न था। उस संघर्ष और कारावास का संदेश फैल रहा था और अंग्रेजी राज उससे आशंकित होने लगा था। भारतीय इतिहास के इन तथ्यों की ‘चाँद’ में उपस्थिति, स्त्रियों के संघर्ष, साथ ही ‘चाँद’ की पत्रकारिता के महत्त्व को भी स्पष्ट करती है। 


16 जून 1924 को लगभग डेढ़ साल तक जेल में रहने के बाद पार्वती देवी की रिहाई हुई। वह भी स्वास्थ्य कारणों से। ‘चाँद’ ने जुलाई 1924 के अंक में ‘विविध विषय’ स्तंभ में इसकी सूचना दी। स्वास्थ्य लाभ की शुभकामना देते हुए ‘चाँद’ ने आग्रह किया कि श्रीमती देवी अब राजनीतिक विषयों की अपेक्षा महिलाओं की स्थिति पर विशेष ध्यान देंगी। इसी अंक में मुखपृष्ठ पर लक्ष्मीबाई का अश्वारोही सैनिक भेष रंगीन चित्र प्रकाशित है। पत्र की संचालिका विद्यावती सहगल लिखित ‘महारानी लक्ष्मीबाई’ शीर्षक परिचयात्मक जीवनी भी इस अंक में है। भारतीय इतिहास की विभिन्न नायिकाओं को ‘चाँद’ में प्रस्तुत करने का सिलसिला इसके साथ आरंभ हुआ। लेखिका यह उम्मीद करती हैं कि ‘चाँद’ की पाठिकाएँ महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करेंगी। वे यह भी कामना करती हैं कि “भगवान ऐसी ही नारी रत्नों को भारत में उत्पन्न करें।”28


इस बीच ‘चाँद’ के विभिन्न अंकों में स्त्रियों को प्राप्त हो रहे मताधिकार, उनकी विभिन्न संस्थाओं और सक्रियता की खबरें जगह पाती रहती हैं। लेकिन, एक बात जो इस दौरान विशेष रूप से ध्यान खींचती है वह है, ‘चाँद’ के लगभग सभी अंकों में प्रकाशित एक सामान्य सी ख़बर, और उस ख़बर की प्रस्तुति का तरीक़ा। विभिन्न इलाकों से हिंदू स्त्रियों के अपहरण, उन्हें बहलाने-फुसलाने, उनके बलात्कार और धर्मांतरण की ख़बरें ‘चाँद’ के पृष्ठों में प्रमुखता से जगह पाती हैं। स्त्रियों के साथ होने वाले पाशविक व्यवहार के प्रति यह ‘संजीदगी’ जायज जान पड़ सकती है! इससे अर्थ निकाला जा सकता है कि हिंदी का बौद्धिक वर्ग उस दौर में स्त्रियों की जेन्यूइन चिंता करने लगा था! किंतु काश, सब कुछ इतना सपाट होता! यह एक महत्त्वपूर्ण बिंदु है, जहाँ से उस दौर के हिंदी के बौद्धिकों-साहित्यिकों-लेखकों-चिंतकों-सुधारकों की ‘साइकी’ को समझने में मदद मिल सकती है। इसका ध्यान रखते हुए कि ऐसी ख़बरें केवल ‘चाँद’ में नहीं हैं, दूसरी पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हैं; कुछ उदाहरणों से उस ‘साइकी’ को समझने का प्रयास करें। जनवरी-फरवरी 1924 के अंक में प्रकाशित दो ख़बरें देखी जानी चाहिए; स्त्रियों से जबरन व्यवहार की एक ख़बर का शीर्षक है, ‘पादरी की दुष्टता’, इस खबर में अपराधी ईसाई है। दूसरी ख़बर का शीर्षक दिया गया है, ‘इसी प्रकार की दूसरी घटना’; वहाँ अपराधी मुसलमान है। जुलाई 1924 के अंक में मोटे टाइप में शीर्षक है, ‘हिंदू स्त्रियों की लूट’। इसके अंतर्गत 21 छोटी-बड़ी खबरें प्रकाशित हैं, कुछ घटनाओं में अपराधी ईसाई है, अधिकांश में मुसलमान। प्रश्न यह नहीं है कि ये खबरें प्रकाशित नहीं होनी चाहिए थीं, प्रश्न यह है कि जब इन घटनाओं के अपराधियों को धार्मिक पहचान के साथ चिह्नित किया गया तो वे खबरें जिनमें अपराधी हिंदू हैं, उन्हें उसी ‘हिंदू’ पहचान के साथ क्यों नहीं उजागर किया गया? इसके साथ कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान देना चाहिए। अपराध के प्रतिकार के लिए कानून व्यवस्था के सुदृढीकरण से अधिक पीड़ित के ‘हिंदू’ पहचान और अपराधी की विधर्मी पहचान को मुखर बनाने की स्पष्ट कोशिश वहाँ है। इन खबरों के प्रसारण में हिंदू महासभा और विभिन्न आर्यसभाओं और उनके पत्रों की सक्रियता स्पष्ट दिखाई देती है। इन्हीं अंकों में ‘सती’ होने की कई सूचनाएँ प्रकाशित हैं। उन सभी घटनाओं के प्रति प्रकाशकीय तेवर उदासी का नहीं, उत्फुल्लता का है।29 


हिन्दू-मुस्लिम एकता पर संपादकीय रवैया पर्याप्त बनावटी, आग्रही और द्विधाग्रस्त है। यह चर्चा यहाँ इसलिए अपेक्षित है क्योंकि इस द्विधा की एक लैंगिक पहचान भी है। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जुलाई 1924 के संपादकीय में ‘कविता प्रिय महिला का उन्माद’ शीर्षक से एक टिप्पणी प्रकाशित है। इस टिप्पणी का स्रोत ‘प्रताप’ है। इस ख़बर का संबंध बांग्ला कवि नजरूल इस्लाम से जुड़ा है। उनकी कविता से प्रभावित हो कर एक युवती इस प्रकार विद्रोहिणी हो गई कि उसने नजरूल इस्लाम से विवाह करना तय कर लिया। दोनों तैयार थे किंतु समाज इसके लिए तैयार नहीं था। ‘प्रताप’ की इस खबर को ‘चाँद’ ने छापना ज़रूरी समझा! आखिर क्यों? इस ख़बर से गुज़रते हुए हम केवल संपादक की मानसिक निर्मिति की नहीं, बल्कि उस दौर की हिंदी पत्रिकाओं और मोटे तौर पर हिंदी के लेखकों-बौद्धिकों के ‘पाखंड’ को भी समझ सकते हैं, कि क्यों स्त्री के साथ होने वाले अपराध की खबरें वहाँ अपराधियों की गैर-हिंदू पहचान के साथ प्रकाशित होती हैं, क्यों सती होने के समाचार पर वे उदासी और निराशा की जगह फूल बरसाते नज़र आते हैं और क्यों हिंदू-मुस्लिम एकता के सवाल पर वे सदैव मुसलमानों को अपनी कसौटी पर कसते नज़र आते हैं; इसलिए इस पूरी टिप्पणी से गुज़रना ज़रूरी है–


“सहयोगी ‘प्रताप’ प्रकाशित करता है कि नजरूल इस्लाम नाम के कोई बंगाली मुसलमान नवयुवक अच्छे कवि हैं। उन्होंने ‘विद्रोही’ नाम की एक कविता बड़ी ही अच्छी, ओजस्वी और भावपूर्ण लिखी है जिससे उनका नाम बंगाल में यहाँ तक प्रसिद्ध हो गया है कि बहुतों के मन में उनका स्थान केवल कवींद्र रवींद्र से ही नीचे है। इनकी कविता पर एक बंगाली युवती इतनी मुग्ध हुई है कि वह इन्हें अपना तन मन सभी न्यौछावर करना चाहती है। दोनों का विवाह करना पसंद है किंतु सामाजिक बंधनों के कारण ऐसा नहीं होने पाता। पाठक पाठिकाओं ने पढ़ा होगा कि हाल ही में बंगाल की दो स्त्रियाँ और भी मुसलमानों पर आसक्त हो कर चली गईं जिनमें से एक तो किसी प्रसिद्ध अध्यापक की स्त्री है। कम से कम इन दशाओं में इन मुसलमानों को कदापि दोष नहीं दे सकते। हमें या तो धर्म त्यागी वा उदार हो सकता कर मुसलमानों के साथ खान पान और शादी ब्याह करना चाहिए अथवा अपने बच्चों को लड़कपन में ही अपने धर्म, अपनी सभ्यता और अपने आदर्श आदि की समुचित शिक्षा देनी चाहिए। हमारे समझ में न वह समय आया है और न शायद आवेगा जब हिंदू मुसलमानों का संकर विवाह हो। अभी तो हमारे अंतर्वर्णों का ही अंतर्भाव नहीं हुआ। अभी तो हमें हिंदू समाज के अंदर ही बहुत दूर तक असवर्ण विवाह चलाना है, फिर मुसलमानों के साथ जिनका धर्म, आचार, व्यवहार, भोजन, पानादि सभी हिंदुओं से इतने पृथक हैं, विवाह संबंध तो दूर रहे–सहभोज करना भी अपने धर्म को तिलांजलि देना है। ऐसी स्थिति में इस युवती के प्रेम को हम केवल प्रमाद कह सकते हैं। कम से कम उसे यह सोचना चाहिए कि इस प्रेम का फल हिंदू समाज पर क्या होगा? हिंदू कन्याएँ बराबर अपने पितृकुल की मर्यादा रखती आई हैं फिर वह कौन सा धर्म हो सकता है जिसके निर्वाह में धर्म ही का त्याग करना पड़े? अतः हम निस्संकोच यही सम्मति देंगे कि वह कविता के मोह में पड़ कर अपने पितृकुल को कलंक का टीका न लगावे, हिंदू समाज को अपने विवेकहीन स्वेच्छाचारिता से अधोगति को न पहुँचावे और न हिंदू धर्म का त्याग करे। क्या उसे एक क्षण के लिए भी विश्वास है कि ऐसे विवाह से उसका धर्म कायम रहेगा? उसे यदि कविता का ही प्रेम है और साथ ही साथ असवर्ण विवाह के विषय में उसका इतना उदार विचार है तो अपनी इच्छा के अनुकूल वर की कमी नहीं होगी। बंगाल में न सही अन्य ही प्रांत, ब्राह्मण न सही शूद्र ही मगर मिल जाएगा ज़रूर। हिंदू समाज अभी एकदम कवियों के ख़ाली नहीं हुआ है। यदि वह विवेक से काम न ले तो हम समझते हैं कि इसके समाज वालों को उचित दमन से भी काम लेना चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता का अर्थ धर्म नाश और स्वेच्छाचारिता नहीं है।”30


‘चाँद’ के अनुसार ऐसे मामलों में मुसलमानों का भला क्या दोष! दोष उस युवती का है! उसे तो किसी हिंदू कवि की कविता को पढ़ कर उन्मादिनी होना चाहिए था!  


तो, ‘प्रेम’ पर पहरा देने वाला यह वही सवर्ण हिंदू पुरुष है जो सती प्रथा का समर्थक है, जो अपराधी का ‘धर्म’ देखना नहीं भूलता, जो ‘ब्राह्मण न सही शूद्र ही’ की सलाह देने वाला यानी जातिगत श्रेणीबद्धता में यकीन रखने वाला है और इतना ही नहीं, स्त्री की आवाज़ दबाने के लिए ‘उचित दमन’ को भी तत्पर है क्योंकि स्त्री के ‘प्रेम’ से ‘धर्म नाश’ हो सकता है!


कहना न होगा, भारत में फासिस्ट शक्तियों के क्रमशः सबल होने में हिंदी के ऐसे लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों और विचारकों की महती भूमिका रही है। और, तुर्रा यह कि हिंदी के विद्वान इस समूचे दौर को तथाकथित ‘जागरण’ या ‘नवजागरण’ कह कर आत्ममुग्ध होते रहते हैं। जबकि ये महज सीमाएँ नहीं हैं, उस बहुप्रचारित ‘नवजागरण’ का अविभाज्य चेहरा है। 


अगस्त 1924 के अंक में ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ को बंद करने की घोषणा की गई। इसके कई कारण बताए गए। उनमें एक कारण यह बताया गया कि सभी समाचारों की सत्यता पर संपादकों को यकीन नहीं है। यह कहा गया कि अब प्रमुख समाचारों को संपादकीय कॉलम में ही जगह मिल जाया करेगा। हालाँकि, इस अंक में ‘हमारे सहयोगी’ स्तंभ में ‘आर्य जगत’ के हवाले से प्रकाशित ख़बर पुनः ध्यान देने लायक है। ख़बर का शीर्षक है–गुंडों की शरारत। ख़बर का पहला ही वाक्य है, “मुसलमान गुंडों की शरारत के समाचार अब इतनी अधिकता से आने लगे हैं कि उन्हें सुन कर कलेजा काँपने लगता है।”31 यानी, ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ भले ही बंद हो गया, पर वैसी ख़बरें, उसी विशेष दृष्टि से छपनी बंद न हुईं। याद रहे कि ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ की ख़बरें दूसरे पत्रों के आधार पर प्रकाशित होती थीं। यानी, यह समस्या केवल ‘चाँद’ की नहीं थी।  


सितंबर-अक्टूबर 1924 के अंक में नागा होने के बाद नवंबर अंक में ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ पुनः प्रकाशित हुआ। 


राष्ट्रीय आंदोलन और महत्त्व से जुड़े समाचारों के प्रकाशन में ‘चाँद’ ने कभी संकोच नहीं किया, जैसे नवंबर 1924 के अंक में अली बंधुओं की माँ के निधन का समाचार। ऐसे समाचारों के प्रकाशन में उसका उदार रूप प्रशंसनीय है। किंतु, वह यही उदारता (?) साम्प्रदायिक टकराव या धार्मिक बहसबाजी के विषयों के प्रकाशन में भी दिखाता है। और, बिलकुल फरिया लेने की शैली में। इसी नवंबर अंक में पर्दे की प्रथा पर एक बेमतलब की बहस को जगह दी गई है। लाहौर से प्रकाशित ‘मुस्लिम आउटलुक’ ने मुसलमानों में पर्दे की प्रथा को हिंदुओं के अनुकरण से जोड़नकर देखा तो ‘चाँद’ ने उसका जवाब देना आवश्यक समझा और उसे मुसलमानों के भारत में आगमन के प्रभाव से जोड़ कर दिखाया। ‘चाँद’ का मानना था कि वह ‘हिंदू समाज की सेवा’ कर रहा है। 


इस बीच महात्मा गाँधी ‘चाँद’ के पृष्ठों पर निरंतर मिलते हैं। संतान निग्रह, विधवा विवाह, वेश्या प्रश्न, मंदिर प्रवेश आदि से संबंधित उनके विचार या उनसे जुड़े समाचार वहाँ प्रकाशित होते रहते हैं। 'वेश्या अंक' (मार्च 1925) में ‘यंग इंडिया’ के हवाले से 1921 की एक घटना का उल्लेख है। 1921 में गाँधी बारीसाल गए थे और वहाँ उनसे 100 वेश्याओं ने भेंट की। गाँधी ने वेश्याओं की स्थिति में सुधार के लिए देशवासियों से अपील की। वेश्याओं से बातचीत में उन्होंने कहा, “मैं तुम लोगों को अपनी बहिन और लड़कयों के समान मान सकता हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे दुख में शरीक होऊँ पर यदि तुम मुझसे छिपाव रखोगी तो मैं तुम्हें सहायता देने में असमर्थ हो जाऊँगा।”32 गाँधी ने उनसे कहा, “तुम्हारी श्रेणी की हिंदुस्तान की सारी बहिनें अगर यह गंदा काम छोड़ कर सूत कातने का कार्य करने लग जाएँ तो भारतवर्ष का उद्धार सहज ही में हो जाए।”33 उनसे सूत कातने और बनाव- शृंगार छोड़ देने के लिए कहा। यह बताते हुए कि, “मैं जानता हूँ कि इतनी आमदनी तुम सूत कात कर नहीं कर सकतीं परंतु जो तुम लोग अनेक प्रकार के मनमोहक शृंगार विलास करती हो, उन्हें तो अब छोड़ ही देना होगा। मैं सिर्फ़ तुम्हीं से यह बात कहता हूँ सो बात नहीं है। मेरी धर्मपत्नी ने भी शृंगारों को त्याग दिया है। मेरे यहाँ बहुत सी सुंदर लड़कियाँ हैं। उनके माँ बाप इस हैसियत के हैं कि उन्हें बढ़िया से बढ़िया गहने कपड़े पहिना सकते हैं तो भी वे लड़कियाँ खादी ही की धोती पहनती हैं और गहना तो किसी तरह की नहीं पहिनतीं।”34 ऊपर हम देख चुके हैं कि स्त्रियों से यही आग्रह मोती लाल नेहरू, कस्तूरबा गाँधी, पूरन देवी भी करती हैं। स्त्रियों के सूत कातने को गाँधी आज़ादी के लिए अनिवार्य मानते हैं। गाँधी की इस पुकार की व्याप्ति और लोकप्रियता का अनुभव प्रेमचंद की एक कहानी से प्राप्त होता है। उनकी उर्दू कहानी ‘बाज़याफ्ऱत’ जब मई 1918 में प्रकाशित हो कर आई तो कहानी की नायिका अपने बारे में बताती है कि ‘मैं सारे दिन घर का कोई न कोई काम करती रहती’ या ‘मुझे तो अपनी रामायण ओर महाभारत में फिर वही लुत्फ़ आने लगा है’; यह कहानी जब 1921 में हिंदी में ‘शांति’ शीर्षक से प्रकाशित हुई तो ये अंश बदल गए। ये अंश क्रमशः इस रूप में बदले– ‘मैं दिन भर घर का कोई न कोई काम करती रहती और कोई काम न रहता, तो चरख़े पर सूत कातती’ और ‘मुझे तो अपनी रामायण और महाभारत में फि़र वही आनंद प्राप्त होने लगा है। चरखा अब पहले से अधिक चलाती हूँ; क्योंकि इस बीच में चरखे ने ख़ूब प्रचार पा लिया है।’ यानी, 1918 से 1921 तक आते-आते चरखा और खादी की लोकप्रियता इतनी बढ़ जाती है कि वह कहानी के पाठ को बदलने में सहायक हो जाता है। यह भी ध्यान रखें कि वह दखल ‘स्त्री’ के हिस्से में आता है। 


क्या इसी ‘स्वार्थ त्याग’ की अपेक्षा ‘चाँद’ संपादक ने ऊपर की है?


1925 के आरंभ में अंग्रेजी पत्र ‘सैटरडे रिव्यू’ की एक महिला प्रतिनिधि ने गाँधी से मुलाकात की। गाँधी ने बातचीत में उक्त प्रतिनिधि के समक्ष अंग्रेजी राज द्वारा दुर्व्यसनों को शास्त्र का स्वरूप देने, वेश्याचार को कानून बनाने की आलोचना की तो प्रतिनिधि ने वेश्याचार को ‘सिपाहियों की विषय वासना तृप्त रखने’ के लिए ज़रूरी बताया ताकि बीमारियाँ न बढ़ें और सेना में ख़राबी न आए। गाँधी ने सीधे-सीधे कहा, “पहिले तो मनुष्य को पशु बना देना और फिर उसकी पशुवृत्ति को तृप्त करने के साधन पहुँचाना? मैं यह नहीं समझ सकता कि देश के नाम पर क्यों युवकों को निकम्मा रख कर उन्हें महज़ शरीर बढ़ाने का प्रोत्साहन दिया जाता है? आपको–एक स्त्री को तो–इसका घोर विरोध करना चाहिए था सो आपको उसकी उल्टी सफाई देते हुए देखकर मैं हैरान हूँ।”35 


कहना न होगा, ‘चाँद’ के संपादक जिस रूप में देश की पहचान करते हैं, यानी पुरुष भारत की; वही पहचान गाँधी नहीं करते। देश, सेना और शारीरिक बल के पुंसत्व को गाँधी स्थगित करते हैं और उसकी नई पहचान गढ़ने की कोशिश करते हैं। जिसमें स्त्रियाँ भी हैं, सूत कातती हुईं, चरखा चलाती हुईं, पिकेटिंग करती हुईं और जेल जाती हुईं। वे हिंदीभाषी समाज के बौद्धिकों की तरह स्त्रियों को पुरुषों की ‘कसौटी’ पर नहीं कसते। 


इसी अंक में कन्याकुमारी के मंदिर में महात्मा गाँधी को प्रवेश न दिए जाने पर भी एक नोट प्रकाशित है। इस टिप्पणी में मंदिर में होने वाले सभी प्रकार के घृणित कर्मों पर हमला बोला गया है। गाँधी को प्रवेश न देने पर संपादक के शब्द हैं, 'मन्दिर के पुजारियों को यह स्मरण रखना चाहिए कि उनका यह व्यवहार देश की दृष्टि में–सनातन हिंदू धर्म की दृष्टि में–एक अक्षम्य अपराध है। हम सनातन धर्म की ओर से योगीश्वर गाँधी से क्षमा माँगते हैं–विश्व को हम यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि इन उद्भ्रांत पुजारियों के इस निंदनीय कृत्य को सनातन हिंदू धर्म के अनुयायी धर्म और सत्य के प्रतिकूल समझते हैं–योगीश्वर गाँधी जिस सनातन हिन्दू धर्म के उपासक हैं, उस उज्ज्वल धर्म की पुण्यमयी शोभा उनके कृत्यों में विलसित होती है। हिन्दू धर्म को लेकर योगीश्वर गाँधी जिस प्रकार अनंत आनंद और अपूर्व गौरव का अनुभव करते हैं, हिन्दू धर्म भी उन जैसा सच्चा अनुयायी पा कर अपने को परम गौरवान्वित मानता है। इस बीसवीं शताब्दी में योगीश्वर गाँधी हिंदू धर्म के प्रधान आधार हैं। उनका निरादर करना सूर्य पर धूलि फेंक कर अपने सिर पर धूल डालने के समान है।”36


यह 1925 में गाँधी की गढ़ी जा रही पहचान है। इक्कीसवीं सदी के इन वर्षों में ये पंक्तियाँ कई सवाल खड़ा करती हैं। पहला यह कि संपादक ने ‘देश’ और ‘सनातन हिंदू धर्म’ का साथ-साथ क्यों प्रयोग किया? उसने केवल ‘देश’ या केवल ‘सनातन हिंदू धर्म’ का प्रयोग क्यों नहीं किया? क्या वह चाहता है कि दोनों को जब भी देखा जाए, साथ-साथ देखा जाए? क्या गाँधी का यह मूल्यांकन इस ‘हिन्दू’ पहचान के घटाटोप के बिना संभव नहीं था? या, यह एक कोशिश है कि गाँधी की समूची पहचान को एक हिन्दू मात्र के रूप में अवकलित कर दिया जाए। दरअस्ल, यह केवल एक उदाहरण नहीं है। ‘चाँद’ संपादक और केवल ‘चाँद’ संपादक ही नहीं, हिंदी समाज के बड़े हिस्से ने उस समय गाँधी-चोला पहन लिया था, वह काँग्रेसी था और हिंदू महासभाई भी। वह स्वयं को सुधारक और उदार कहता रहता था, किंतु अवसर उपस्थित होते ही उसकी संकीर्णता और सांप्रदायिकता प्रकट हो जाती थी। इस ‘हिन्दू’ मन की ‘चिंता’ के उदाहरण ऊपर दिए गए हैं, और यह सिलसिला बाद के अंकों में भी मिलता है। श्रेष्ठताबोध से भरी हुई वैचारिकता निरंतर दूसरे धर्म को अपनी कसौटी पर कसने के लिए व्यग्र दिखाई देती है।37 ‘चाँद’ में यह सिलसिला बाद में जा कर थमता है। ऐसा क्यों हुआ, यह भी विचारणीय है।


बहरहाल, मई-जून 1925 के अंक में इलाहाबाद की राजनीति से जुड़ी एक ख़बर ध्यान खींचती है। श्रीमती उमा नेहरू स्थानीय म्यूनिसिपलिटी की सदस्य चुनी गई थीं। उन्होंने बोर्ड के सदस्यों के व्यवहार से खिन्न हो कर त्यागपत्र दे दिया। श्रीमती नेहरू के अनुसार म्यूनिसिपलिटी में केवल निरर्थक बहसें होती हैं और नगरवासियों की भलाई के लिए कुछ नहीं होता। यह एक सोसाइटी से अधिक कुछ भी नहीं है। ‘चाँद’ ने इस घटना पर एक मार्के की टिप्पणी की, “वर्तमान बोर्ड में अधिकांश स्वराज पार्टी के वह मेंबर हैं, जो खुदा न ख़्वास्ता स्वराज्य हो जाने पर, देश पर शासन का दावा करते हैं। जब स्वयं उनकी ऐसी हालत है तो इनके शासन काल में साधारण प्रजा की क्या गति होगी यह बात सोच कर ही हृदय काँप उठता है।”38 


यह आशंका कालांतर में सच साबित होती है। देश की राजनीति में सुविधाभोगी तबके के प्रवेश और प्रभावशाली होने की यह तस्वीर है। इस राजनीति के खतरे की ओर संकेत उसी समय प्रकाशित ‘रंगभूमि’ (प्रेमचंद) में सूरदास भी करता है। इसलिए, ऐसी राजनीति से हट जाने के श्रीमती नेहरू के निर्णय का ‘चाँद’ स्वागत करता है। और, इसे अनुकरणीय मानता है। किंतु, जब दबाव पड़ने पर श्रीमती नेहरू ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया तो जुलाई 1925 के अंक में ‘चाँद’ ने इसका स्वागत नहीं किया।39 


महात्मा गाँधी को ‘हिन्दू’ पहचान के साथ उभारना, सुधारवादी विचारों का स्वागत और हिन्दू महासभा का गुणगान करना–यह एक ऐसी खिचड़ी है जो ‘चाँद’ में ख़ूब पकाई जाती है। सितंबर 1925 का संपादकीय इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए। ‘पंडित मंडल का प्रमाद’ शीर्षक से प्रकाशित यह टिप्पणी बेहद खतरनाक पॉलिमिक्स का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इसमें गाँधी के मंदिर प्रवेश का विरोध करने वालों पंडितों पर प्रहार किया गया है। कहा गया है कि “हिन्दू धर्म विदेशियों और विधर्मियों के आक्रमण से जर्जर हो गया है; और उससे भी अधिक वह जीर्ण हुवा है पंडों और पुरोहितों की अधर्ममयी कुत्सित लीला से। उसकी ऐसी करुण दशा देख कर हमारे इस अभागे देश के महामान्य नेताओं का हृदय एक बार ही रो उठा और उन्होंने इस प्राचीन धर्म के जीर्ण मंदिर में खड़े होकर, हिंदू युवक मंडल के सामने, क्रांति की घोषणा कर दी है। हिंदू युवकों ने भी अपने प्रमुख नेताओं के आदेश का पालन करने के लिए दृढ़ संकल्प कर लिया और उन्हें यह निश्चय हो गया है कि जब तक इस पराधीन देश का धर्म गगन परिष्कृत नहीं होगा, तब तक देश की स्वतंत्रता की प्राप्ति भी असंभव ही सी है।”40 यह पूरी शब्दावली ढोंग से भरी हुई है। जैसा कि ऊपर भी कहा गया है कि यह उसी मानसिकता की प्रस्तुति है जिसका लक्ष्य ‘देश’ और ‘हिन्दू’ पहचान को एकमेक करना और उसी पहचान के साथ सीमित कर देना है। यह तब स्पष्ट हो जाता है जब पूछा जाता है कि, “क्‍या आपने कभी इस बात की ओर भी अपनी बुद्धि को प्रेरित किया कि आपके द्वारा दुरदुराये हुवे अनेकों अछूतों को आज इस्लाम धर्म किस प्रकार हृदय पर धारण करने के लिए उद्यत हो रहा है?”41 गोया, इस्लाम ‘अछूतों’ को स्वीकारने के लिए ‘उद्यत’ नहीं होता, तो यह बेचैनी भी नहीं होती! इस लेख के कुछ अंश इस पॉलिमिक्स को देखने के लिए प्रस्तुत हैं : 


“हम सभी जानते हैं कि धार्मिक क्रांति का प्रमुख नेतृत्व है योगेश्वर गाँधी के हाथों में और क्रांति का सबसे पहिला परिणाम है हिन्दू महासभा की संस्थापना।”42


“महासभा का विरोध करना ऐसे दिग्गज पंडितों को उचित नहीं है। जिस महासभा के सूत्रधार हों सनातन धर्म के परम अनुयायी महर्षिवर मालवीय, जिस हिंदू सभा के प्रमुख संचालक हों हिंदुत्व के परम प्रेमी विश्वविख्यात आचार्य प्रफुल्ल चंद्र और जिस हिन्दू सभा के कर्णधार हों हिन्दू गौरव के परम उद्धारक सर्वस्व त्यागी लाजपत, उस हिन्दू सभा का विरोध करना उन भारतीय पंडितों को शोभा नहीं देता है।”43


“हिन्दू धर्म का दूसरा नाम है सनातन धर्म अर्थात यह वह धर्म है जो सबसे पहिले भारत की पवित्र रंगभूमि में अवतीर्ण हुआ था। इसकी उदारता और महिमा को देख कर, स्वयं जगदीश्वर विमुग्ध हो कर, इसको परिपालन करने के लिए भारतीय वसुंधरा की गोद में एक नहीं, अनेक बार प्रकट हुए थे। आज भी हिन्दू धर्म का वह प्राचीन गौरव उसके प्राचीन इतिहास में मणिमय अक्षरों में गुंफित है। विश्व का कौन सा ऐसा धर्म है जिसने इतनी उदार और उच्च शिक्षा दी हो?”44


अब, इसे क्या कहें कि ‘चाँद’ एक ओर काशी के स्वघोषित धर्मरक्षकों की तीखे स्वर में निंदा करता है और हिन्दू महासभा का गुणगान करता है; वहीं हिन्दू महासभा, विशेषकर मदन मोहन मालवीय पर आरोपों की झड़ी लगाने में भी नहीं चूकता। इसे प्रखरता कहा जाए, अंतर्विरोध कहा जाए या उसकी सुविधाजनक राजनीति! मई 1926 के संपादकीय में ‘समाज और हिन्दू महासभा’ शीर्षक से संकलित टिप्पणी को पढ़ना उस दौर की सभाई राजनीति की कलई खोलता है और उससे कहीं अधिक आने वाले समय के खतरे की ओर भी संकेत करता है। संपादक के अनुसार जबसे मदन मोहन मालवीय ने हिन्दू सभा के संचालन का भार लिया है, तब से इस संगठन की चर्चा सार्वदेशिक हो रही है। किंतु, उसकी निराशा है कि उसका कोई प्रत्यक्ष फल वह नहीं देख पा रहा है। इस टिप्पणी से कुछ अंश देखे जाने चाहिए : 


“हम देखते हैं, हिन्दू समाज अभी तक अपनी पुरानी जहालत और संकीर्णताओं का शिकार है। बाल विवाह, वृद्ध विवाह, दहेज की नाशकारी प्रथा, दलितों की पतित अवस्था, स्त्रियों की परवशता, हिन्दू जाति के अंतर्गत भिन्न भिन्न जातियों में आपस का द्वेष और भेद भाव इत्यादि दुर्गुण हिन्दू समाज को आज भी उतना ही कलुषित और कलंकित कर रहे हैं, जितना इस आंदोलन के पूर्व कर रहे थे! प्रश्न यह उठता है कि कौन सा ऐसा कारण है कि, हमारा यह जातीय आंदोलन इस बुरी तरह विफल हो रहा है?”45 


“हिंदुओं की सारी विफलता की जिम्मेदारी हम हिन्दू महासभा के अंतर्गत उस वर्ग पर रखते हैं जो हिन्दू जाति की सामाजिक कुरीतियों के दूर करने में ज़रा भी दिलचस्पी नहीं रखता, इसमें से अधिकांश लोग तो वास्तव में सरकारी काउंसिलों में जाने की सुविधा प्राप्त करने के लिए जनता में प्रसिद्ध हो जाने के स्वार्थपूर्ण उद्देश से भोले नागरिकों पर अपना नेतृत्व कायम रखने तथा इसी प्रकार के अन्य स्वार्थपूर्ण लाभों के लिए हिन्दू महासभा में घुस आए हैं और हिन्दू जाति की सामाजिक उन्नति के पवित्र मार्ग में रोड़े अटकाया करते हैं!”46 


“स्‍वामी श्रद्धानंद ने सामाजिक सुधार का उद्देश सामने रख कर महासभा में प्रवेश किया और महामना मालवीय जी पधारे अपने वही पुराने संकीर्ण विचारों को लिए हुए! ----- कलकत्ते की महासभा में अछूतों के उद्धार का प्रश्न पेश हुआ, हिन्दू धर्म की धर्म पुस्तकों को पढ़ने के लिए अछूतों को भी अधिकार देने का प्रस्ताव पेश किया गया और किसी ने नहीं, स्वयं महामना मालवीय जी ने उसका तीव्र विरोध किया!”47 


“मालवीय जी का हिन्दू महासभा को कायम करने का मुख्योद्देश्य समाज सुधार था ही नहीं। उनका मुख्य उद्देश तो राजनैतिक था। वे किसी प्रकार बड़ी व्यवस्थापिका सभा में प्रवेश करना चाहते थे और जो पोज़ीशन पं. मोती लाल नेहरू की है, वे भी उसे प्राप्त करना चाहते थे।”48


“हमें ख़ूब याद है कि जिस समय हिन्दू महासभा को आरंभ किया गया था, उस समय बड़े-बड़े उद्देश्य बताए गए थे, सभा अछूतों का उद्धार करके उन्हें गले से लगाएगी, ------ हिन्दू महिलाओं की दशा सुधारी जाएगी, उनकी शिक्षा की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया जाएगा, मुसलमान गुंडों से हिंदू रमणियों की रक्षा के लिए नगर-नगर में स्वयंसेवकों की ‘सेना’ बनाई जाएगी। इत्यादि-इत्यादि---”49 


“हिन्दू महासभा द्वारा हमारे देशवासियों को लाभ तो कुछ नहीं, पर हानियाँ अधिक हुई हैं। दो वर्ष पहिले की अपेक्षा आज हिन्दू अधिक पिट रहे हैं। हम पिछले दो वर्षों में जितने अधिक हिन्दू मुसलमानों के झगड़े हमारे सुनने में आए हैं, शायद अंग्रेजी राज्य के पूर्णतया कायम होने के बाद कभी भी नहीं हुए थे।”50


“हम नहीं चाहते कि कोई भी सार्वजनिक संस्था किसी एक प्रभावशाली व्यक्ति के हाथों की कठपुतली बन कर, देश के वास्तविक सुधार की ओर ध्यान न दे कर, अपना अस्तित्व कायम रखे!! ऐसी सार्वजनिक संस्थाओं के द्वारा ही देश में भयंकार कांड अनुष्ठित होते हैं और इसका फल भोगना पड़ता है भोली-भाली जनता को!”51


सामाजिक सुधारों के विषय में मदन मोहन मालवीय के रवैये की आलोचना कई अंकों में है। सितंबर 1925 और मई 1926 की इन टिप्पणियों में हिन्दू महासभा का रूप नितांत भिन्न नज़र आता है। एक अंक में मदन मोहन मालवीय को ‘महर्षिवर’ कहा गया तो दूसरे अंक में संकीर्ण विचारों और निजी स्वार्थ को बढ़ावा देने वाला। हालाँकि, संपादकीय में सामाजिक सुधार के लिए हिन्दू महासभा से आशा नहीं छोड़ी गई है; वरन् उससे उम्मीद यह है कि वह ‘राजनीति’ को अपना विषय न बना कर सुधारों पर अपना ध्यान केंद्रित करे। क्या सहगल यह नहीं देख पा रहे थे कि राजनैतिक आंदोलन और सामाजिक सुधार की प्रक्रिया अलग-अलग नहीं चला करतीं। या वे जान-बूझ कर ऐसा कर रहे थे। हिन्दू महासभा का नेतृत्व जिन हाथों में था वे यथास्थितिवादी थे। ‘चाँद’ के संपादक के शब्द लें तो वे ‘संकीर्ण’ और निजी स्वार्थ को प्रश्रय देने वाले थे; यही कारण है कि वह संगठन न तो समाज सुधार की प्रक्रिया को किसी प्रकार गति दे पाया और न ही भारतीय राजनीति में अग्रगामी शक्तियों का प्रतिनिधि बन पाया। बल्कि, उसके तंतुओं से ‘स्वयंसेवकों’ की एक सेना ज़रूर बनी; जिसने कालांतर में अपना एक ही लक्ष्य रखा और उसका फल बारंबार ‘भोली-भाली’ जनता को भोगना पड़ा। 


इस बीच ‘चाँद’ के पृष्ठों पर सरोजिनी नायडू को निरंतर जगह मिलती है। भारतीय महिलाओं की आधुनिक और वैश्विक पहचान के रूप में उन्हें समादृत किया गया। उनके सार्वजनिक जीवन और कवि-कर्म को बहुत भास्वर रूप में प्रकाशित किया गया। विभिन्न स्थलों पर दिए उनके व्याख्यानों को भी ‘चाँद’ में जगह मिली।52


अगस्त 1926 के अंक में ‘हमारे सहयोगी’ स्तंभ में विभिन्न पत्रों के हवाले से कुछ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ प्रकाशित हैं। अंक में ‘नवजीवन’ के हवाले से ‘विधवा विवाह’ के प्रश्न पर महात्मा गाँधी की टिप्पणी प्रकाशित है।53 इसी अंक में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द पीपल’ के हवाले से ‘सामाजिक सुधार’ शीर्षक से लाला लाजपत राय के विचार प्रकाशित हैं। लाला लाजपत राय की यह संक्षिप्त टिप्पणी उस पूरे दौर की राजनीति और उसके अंतर्विरोधों को दिखाने में सक्षम है। वे लिखते हैं कि “पुरुष एवं स्त्री समाज की आर्थिक अवस्था ही हमारी वर्तमान स्थिति को सुधारने में एक मुख्य बाधा है।-----सामाजिक समस्याओं के हल हुए बिना कोई राजनैतिक प्रश्न सुलझ ही नहीं सकता।---------स्वाधीनता ही राष्ट्रीय योग्यता का प्रतिफल है। यह योग्यता उस समय तक हमें कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि हम अपनी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को समुचित उन्नत कर स्वावलंबी, स्वाभिमानी, बलवान, विश्वसनीय एवं दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं बनते।----बलवान जाति दीनता को पास नहीं फटकने देती, वह सांप्रदायिक विरोध को नष्ट कर देती है और समय पर एक हो जाती है। पारस्परिक भय एवं अविश्वास, यद्यपि इस समय असंभव प्रतीत होता है, भविष्य में दूर हो सकते हैं। शर्त यह है कि, उसके लिए हम यथायोग्य प्रयत्न करें।”54  


अब, लाला लाजपत राय के विचारों की कसौटी पर यदि ‘चाँद’ को परखने का प्रयास करें तो उसकी द्विधाएँ नज़र आने लगती हैं। ‘चाँद’ से राजनैतिक जागरण के स्वर सुनाई देते हैं और सामाजिक जागरण के भी। किंतु, सांप्रदायिक विरोध को नष्ट करने, पारस्परिक भय एवं अविश्वास को दूर करने का ईमानदार प्रयास वहाँ कम ही दिखाई देता है। जितनी मुखरता से वह ‘हिंदू’ स्वर को उठाता है और अपनी कसौटियों पर ‘विधर्मियों’ को कसता है; सांप्रदायिक ऐक्य और विश्वास बहाली की यदि उतनी ही कोशिश ‘चाँद’ और दूसरे पत्रों ने की होती, तो सूरत कुछ और होती! यह कहने में कतई संकोच नहीं होना चाहिए कि ‘चाँद’ की कसौटी55 अत्यंत स्वार्थपरक और संकीर्ण है। इसके साथ-साथ ‘चाँद’ में एक अलग किस्म का कॉकटेल भी दिखाई देता है। कई बार इस्लाम के विषय में प्रशंसात्मक लेख और निंदापरक सामग्री, एक ही अंक में साथ-साथ प्रकाशित है।56 ऐसी स्थिति को संपादकीय उदारता और निष्पक्षता के बजाय पुनरूत्थानवादी चेहरे की सतर्क और घाघ रणनीति के रूप में चिह्नित करना चाहिए। 


हिंदी पट्टी के बड़े केंद्र इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘चाँद’ की अपेक्षाओं और उन अपेक्षाओं की हड़बड़ी, घालमेल और पॉलिटिक्स से इतर उस समय के सच और ज़रूरत को समझने के लिए लाला हरदयाल की टिप्पणी को पढ़ना ज़्यादा उपयोगी है। कहाँ बात-बात में हिंदू धर्म पर खतरे और हिंदू उत्थान की छटपटाहट और कहाँ हरदयाल का चिंतन! अंग्रेजी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘मॉडर्न रिव्यू’ में ‘द शेम ऑफ इंडिया’ शीर्षक से लाला हरदयाल का लेख प्रकाशित हुआ था। ‘चाँद’ ने ‘भारत का कलंक’ शीर्षक से इसके कुछ अंशों को नवंबर 1926 के अंक में प्रकाशित किया। हरदयाल लिखते हैं कि भारत की कुप्रथाओं से यूरोप और अमेरिका परिचित है। वे भारतीय समाज के कुछ कलंक गिनाते हैं–

1- बाल विवाह और समागम स्वीकृति की आयु, 

2- पर्दा, 

3- नर्तकी और देवदासी, 

4- जाति बंधन, 

5- बहु विवाह, 

6- वीभत्स मूर्तियाँ, 

7- शिक्षा का अभाव, 

8- दासता।57 


कहने को ये बातें स्थानीय समाज सुधारक भी कह रहे थे, पर उनकी बातों पर ‘महान’ भारतीय संस्कृति और हिंदू पहचान का इतना दबाव होता है, कि वह ज़ुबानी जमा-खर्च से अधिक नहीं जान पड़ता। जबकि लाला हरदयाल के समूचे विश्लेषण में वह आग्रह नहीं मिलता। 


5-7 जनवरी 1927 को पूना में आयोजित अखिल भारतवर्षीय महिला सम्मेलन की रिपोर्ट ‘संपादकीय’ के रूप में फरवरी 1927 के अंक में ‘चाँद’ में प्रकाशित हुई। संपादकीय में इस आयोजन की प्रशंसा की गई। स्त्री शिक्षा और सुधार की ज़रूरतों पर बल देने के बाद स्त्री की पहचान, तमाम सुधारों का लक्ष्य जिस रूप में चिह्नित (सीमित) किया गया, वह ध्यान देने लायक है। संपादकीय के शब्द हैं, “भारत का स्थायी कल्याण सुशिक्षित, वीर एवं योग्य माताओं पर ही निर्भर है। ----- माता की पावन शिक्षा के कारण आल्हा, ऊदल महोबा के युद्ध क्षेत्र को प्रकम्पायमान कर रण-चंडिका के मधुर आह्वान में अपने प्राणों पर हँसते हँसते खेल गए थे। यह माता के पावन मंत्रें का ही परिणाम था कि, शिवाजी ने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली बादशाह के दाँत खट्टे कर मुग़ल साम्राज्य के विशाल किले पर हिंदू राज्य की नींव डाली थी।”58 इसके बाद दुर्गा के लगभग दो दर्जन नाम गिनाए जाते हैं और कहा जाता है कि इनके नामों के आगे ‘माँ’ का अत्यंत पवित्र, सुंदर एवं ममतापूर्ण नाम रखा जाता है। 


महिलाओं के सम्मेलन की इस रिपोर्टिंग से कई प्रश्न उठते हैं। पहला यह कि क्यों स्त्री की पहचान और उसकी संभावनाओं को ‘माँ’ तक और वह भी ‘पुत्र’ की माँ तक सीमित किया गया? क्या वह एक बेटी की जननी नहीं हो सकती थी? दूसरी बात यह कि क्यों इस उल्लेख में आल्हा-ऊदल, शिवाजी और छत्रसाल की ही चर्चा है? क्या यह माँ और उसके ज़रिए उभारी जा रही शक्ति की पहचान का ‘हिंदूकरण’ नहीं था। शक्ति के तमाम नामों का उल्लेख तो इसी उद्देश्य से किया जा रहा था! इसमें अन्य नाम क्यों नहीं आए? कहना न होगा, यह समूची व्याख्या एक सवर्ण हिंदू पुरुष की है। उस पुरुष की व्याख्याओं को सतर्क होकर देखने की ज़रूरत है। उसका हिंदू मन इतना सक्रिय और आग्रही है कि वह भारतीय समाज के विभिन्न ज्वलंत प्रश्नों का समाधान केवल और केवल इसलिए चाहता है कि हिंदू धर्म की पहचान मैली न हो! स्वाभाविक है कि ऐसे में उसकी सक्रियता ढोंग और नकलीपने से मुक्त नहीं हो पाती। ‘चाँद’ का बहुचर्चित ‘अछूतांक’ इससे बचा हुआ नहीं है। संपादक का आग्रह है कि अछूत समस्या पर विचार किया जाए जिससे कि ‘हिंदू जाति को प्रलय के भयावने दृश्य से’59 बचाया जा सके और ‘हिंदू समाज की कमज़ोर नींव दृढ़’60 हो सके। इस चिंता की मूल वजह इस्लाम और ईसाई मत में उनका धर्मांतरण है। स्पष्ट है कि यह ‘संकट’ नहीं  होता तो कमज़ोर नींव को दृढ़ करने की ज़रूरत नहीं होती! 


‘चाँद’ में इस हिंदू मन की उपस्थिति संपादकीय लेखों-टिप्पणियों के साथ-साथ अन्य सामग्री भी है। चाहे वह भाषा का प्रश्न हो या प्रेम का। नजरूल इस्लाम का प्रसंग ऊपर उद्धृत किया जा चुका है। नवंबर 1927 में पुनः एक वैसा ही प्रसंग उपस्थित है। प्रसिद्ध प्राच्यविद् और विद्वान रामकृष्ण भंडारकर की नातिन मलिनीबाई पानन्दिकर का विवाह गुलाब खाँ से हुआ। इस अंतर्धार्मिक विवाह का पूना में ख़ूब विरोध हुआ। और, केवल पूना में नहीं, विवाह का विरोध ‘चाँद’ में भी होता है। कारण, वही हिंदू मन! ‘विविध विषय’ के अंतर्गत ‘पाठेश्वरी प्रसाद जी त्रिपाठी, बी.ए., एल एल बी.’ की इस प्रसंग में ‘प्रेम की प्रगति’ शीर्षक से टिप्पणी प्रकाशित है। इस व्यंग्यात्मक शीर्षक और टिप्पणी से सवर्ण हिंदू पुरुष की कुंठा व्यक्त होती है। अंग्रेजी शिक्षा की डिग्रियाँ प्राप्त व्यक्ति इस अंतर्धार्मिक विवाह का विरोधी तो है ही, वह स्त्रियों की अंग्रेजी शिक्षा का भी विरोधी है। उसकी नज़र में, “मिस पानन्दिकर की यह प्रेम प्रगति हिंदू समाज के लिए विशेष हानि करनेवाली हुई है, और भविष्य में हिंदू सभ्यता की प्रबल घातक होगी। मिस पानन्दिकर को उचित था कि मिस्टर गुलाब खाँ को हिंदू बना लेतीं, और तब उन्हें अपने हृदय का स्वामी बनातीं। उनकी यह प्रेम प्रगति प्रत्येक हिंदू को चेतावनी दे रही है स्त्रियों में आगे चलकर उनकी अंग्रेजी शिक्षा हिंदू सभ्यता की रक्षा न करेगी। अतः हिंदू समाज में अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करनेवाली स्त्रियों से मेरा अनुरोध है कि वह हिंदू समाज को इस प्रकार की प्रेम प्रगति से सदैव दूर रखें!!”61 पुनः दुहराने की ज़रूरत है कि ‘चाँद’ का जागरण बहुत ही सेलेक्टिव था।


यानी, देखें कि असहयोग आंदोलन के शिथिल होते ही, विशेषकर 1925 से, ‘चाँद’ की ‘हिंदू’ पहचान अधिक मुखर हो कर दिखाई देने लगती है। संपादकीय से लेकर समाचार संग्रह कॉलम तक, साहित्यिक रचनाओं को छोड़ कर उसकी मुख्यतः एक ही नीति दिखाई देती है। और वह है अपने तईं समाज का ‘जागरण’ करना। किंतु, वह ‘जागरण’ बहुत व्यापक और समावेशी नहीं था। अंग्रेजी राज की अनीतियों के उल्लेख के बजाय वह हिंदू संगठन, हिंदू जागरण और हिंदू एकता पर बल देता है। ऊपर-ऊपर भले यह दिखाई दे कि वह आत्मनिरीक्षण और आत्मालोचन को महत्त्व दे रहा है; किंतु उसमें ठोस प्रयास कम ही नज़र आता है। ‘चाँद’ में हिंदू-मुस्लिम प्रश्न इतनी बार और इतनी उग्रता से प्रस्तुत होता है कि यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस पत्रिका ने भले ही पहले अंक में अपनी टैगलाइन ‘स्त्रियों की सचित्र मासिक पत्रिका’ रखी हो, किंतु, 1925 के आसपास उसकी पहचान हिंदू-मुस्लिम विवाद को अपना केंद्रीय विषय बनाने वाली पत्रिका के रूप में उभरती है।


फॉंसी अंक, नवंबर 1928 का कवर पृष्‍ठ ( साभार  : नेशनल आर्काइव) 



जून 1928 के अंक में सुंदलाल की किताब ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ का विज्ञापन प्रकाशित हुआ और अगस्त 1928 से किताब का धारावाहिक रूप में प्रकाशन शुरू हुआ। इसी अंक में ‘विविध विषय’ के अंतर्गत बिहार के दरभंगा निवासी और महात्मा गाँधी के अनुयायी रामनंदन मिश्र द्वारा पर्दा प्रथा के विरोध का समाचार प्रकाशित हुआ।62 नवंबर 1928 का अंक आचार्य चतुरसेन शास्त्री के संपादन में ‘फाँसी अंक’ के रूप में प्रकाशित हुआ। 10 दिसंबर 1928 को सरकार ने इसे ज़ब्त करने का आदेश निकाला। इसका पूरा ब्यौरा फरवरी 1929 के अंक में है। रामरख सिंह सहगल ने यह लिखा कि ‘फाँसी अंक’ का उद्देश्य ब्रिटिश शासन की जड़ खोदना नहीं था और न ही अंग्रेजी राज के विरुद्ध घृणोत्पादक भावों का प्रचार करना। उनके अनुसार अंक में ‘गुरुतर अपराध’ केवल यह हुआ कि परिशिष्ट में फाँसी पाए विप्लवकारियों की चर्चा हो गई! और, यह चर्चा ज़ब्ती का आधार नहीं बन सकती। सहगल ने अंग्रेजी राज के अधिकारियों से भेंट की और ज़ब्ती का कारण जानना चाहा, पर उन्हें कोई स्पष्ट उत्तर न मिला।


‘फाँसी अंक को फाँसी’ शीर्षक टिप्पणी में रामरख सिंह सहगल ‘फाँसी अंक’ द्वारा अंग्रेजी राज के विरोध के प्रयास से इनकार करते हैं किंतु टिप्पणी के अंत में अंग्रेज पुलिस की कार्रवाई को ‘अपना सौभाग्य’ भी बताते हैं।


इसे संयोग ही कहा जाए कि इस अंक के बाद दिसंबर 1928 के अंक का संपादकीय पिछली रीत (हिंदू-मुस्लिम चर्चा) से भिन्न बारदोली सत्याग्रह पर केंद्रित है। ‘विजयनी बारदोली’ शीर्षक से यह संपादकीय ‘चाँद’ के बत्तीस पृष्ठों में प्रकाशित है। इसमें दर्जन भर तस्वीरें भी प्रकाशित हैं जिनमें सरदार पटेल और आंदोलन की सक्रिय महिलाएँ उपस्थित हैं। इसी अंक में लाला लाजपत राय के निधन का समाचार भी प्रकाशित है। साइमन कमीशन के आगमन और उसके विरोध की कोई सूचना अभी वहाँ नहीं है।63 


इस बीच मार्च 1929 में ‘चाँद’ में सिलसिलेवार प्रकाशित हो रहे ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ का चाँद प्रेस से पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। अंग्रेजी सरकार ने पहले किताब के विज्ञापनों को प्रतिबंधित किया और किताब न छापने का निर्देश दिया। 18 मार्च 1929 को यह किताब प्रकाशित हुई। किताब न छापने का निर्देश प्रकाशक को 20 मार्च को मिला और इसे प्रतिबंधित करने का आदेश 22 मार्च 1929 को निकला। खरीदारों के यहाँ से, पोस्ट ऑफिसों से किताब की ज़ब्ती होने लगी। देश के विभिन्न पत्रों ने इस ज़ब्ती पर अपना रोष प्रकट किया। महात्मा गाँधी ने इसे ‘दिन दहाड़े डकैती’ से कम नहीं माना। ‘चाँद’ के अप्रैल और मई 1929 के अंक में यह पूरा ब्यौरा प्रकाशित है। रामरख सिंह सहगल ने सरकारी आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उनके वकील थे–डॉक्टर कैलाश नाथ काटजू।64 किंतु, फैसला पक्ष में नहीं आया। इसी समय ‘चाँद’ को सरकारी संस्थाओं में खरीद की सूची से हटा लिया गया। सरकारी ख़रीद से हटने के बाद ‘चाँद’ के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित होनेवाला उद्धरण भी बदल गया। पहले पत्रिका के विभिन्न राज्यों के ‘पब्लिक इंस्ट्रक्शन विभाग’ (शिक्षा विभाग) द्वारा शैक्षणिक संस्थाओं में क्रय हेतु अनुमोदित होने की सूचना मुद्रित रहती थी। जून 1929 तक यह सिलसिला चला। जुलाई 1929 में उक्त उद्धरण में आंशिक परिवर्तन आया। यूपी गवर्नमेंट ने इसे अब अनुमोदित पत्रिकाओं की सूची से बाहर कर दिया। अक्टूबर 1929 के अंक में इसे सेंट्रल प्रोवींस और बेरार द्वारा भी अनुमोदित पत्रिकाओं की सूची से बाहर निकालने की सूचना दी गई। संभवतः अप्रैल 1930 में इसे पंजाब की सूची से भी बाहर निकाल दिया गया। मई अंक में अब नया उद्धरण दिया गया, “आध्यात्मिक स्वराज्य हमारा ध्येय, सत्य हमारा साधन और प्रेम हमारी प्रणाली है। जब तक इस पावन अनुष्ठान में हम अविचल हैं, तब तक हमें इसका भय नहीं कि हमारे विरोधियों की संख्या और शक्ति कितनी है।”


फॉंसी अंक पर सरकारी कार्रवाई से संबद्ध पृष्‍ठ ( साभार  : नेशनल आर्काइव) 


जून 1929 का संपादकीय ‘स्वदेशी आंदोलन’ शीर्षक से है। अंग्रेजी शासन की आर्थिक लूट और भारत की दुरवस्था का इस लेख में तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है और विदेशी वस्त्र के बहिष्कार की अपेक्षा व्यक्त की गई है। इसी अंक में ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ में ‘स्त्रियाँ और स्वदेशी’ शीर्षक से एक समाचार प्रकाशित है। इसमें कलकत्ता के बालीगंज में महिला राष्ट्रीय संघ द्वारा आयोजित सभा में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिए उद्बोधन को संकलित किया गया है। उन्होंने स्वदेशी के विस्तार में स्त्रियों की भूमिका को रेखांकित किया और स्त्रियों की ‘रक्षा’ के संबंध में कहा कि, फ्स्त्रियाँ जब तक स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करना और स्वयं आत्मरक्षा करना न सीख लेंगी, तब तक विश्व की कोई भी शक्ति रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकती।”65 ध्यान दें कि यह दृष्टिभेद का उदाहरण है। रामरख सिंह सहगल आदि, स्त्रियों की रक्षा के लिए हिंदू सेना और संगठन बनाने की चर्चा कर रहे थे तो सुभाष बाबू स्त्रियों की रक्षा के प्रश्न को स्त्रियों की अपनी मज़बूती और स्वतंत्रता से जोड़ कर देख रहे थे। 


1929 तक आते-आते, तब जबकि ‘फाँसी अंक’ और ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ का प्रकरण सामने आ गया, 1925 के आस-पास से शुरू हुई; हिंदू-चर्चा ‘चाँद’ में थमता-बदलता नज़र आता है। वह पूरी तरह समाप्त तो नहीं होता, किंतु उसका आवेग और आग्रह ज़रूर मंद पड़ जाता है। अब उसके संपादकीय अन्य विषयों पर केंद्रित होने लगते हैं। हिंदू स्त्रियों के मुसलमानों द्वारा शोषित होने की खबरों की प्रस्तुति भी पहले से भिन्न हो जाती है।66 


1929 के दिसंबर अंक का संपादकीय ‘काँग्रेस का उत्तरदायित्व’ शीर्षक से प्रकाशित है। स्वाधीनता की माँग, गाँधी का नेतृत्व, काँग्रेस की नीतियाँ और काँग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं का यथार्थ आदि को यह संपादकीय बहुत संतुलित और सत्यता के साथ प्रकट करता है। संपादकीय यह चिंता प्रकट करता है कि काँग्रेसी जन, गाँधी का नेतृत्व तो चाहते हैं किंतु गाँधी की कसौटी पर स्वयं को कसने के लिए तैयार नहीं है, “महात्मा गाँधी ने अनेक बार महासभा समिति के सदस्यों की सेवा में निवेदन किया है कि यदि वे उन्हें काँग्रेस का सभापति बनाना चाहते हैं, तो महासभा समिति के सदस्यों को कार्य–ठोस कार्य–करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। केवल भाषणों, प्रस्तावों, जुलूसों और तमाशों से स्वराज्य नहीं मिल सकता। स्थायी और रचनात्मक कार्य की बड़ी आवश्यकता है। पर महासभा समिति के सदस्यों को यह बात पसंद नहीं आई।”67 लाहौर काँग्रेस का सभापति चुनने के बाबत लखनऊ में हुई बैठक में गाँधी ने सभापति बनने का आग्रह अस्वीकार कर दिया। इस अस्वीकार के पीछे काँग्रेस जन की अकर्मण्यता, सुविधाभागी चरित्र और द्विधा थी। यह संपादकीय बिंदुवार काँग्रेस की असफलता के कारणों का उल्लेख करता है। संपादकीय का अंत बहुत सार रूप में, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की सीमा बताते हुए हुआ है। रामरख सिंह सहगल ने लिखा है कि कोई भी आंदोलन, चाहे वह शांतिपूर्ण हो या अशांतिमय; उसकी सफलता जनता के समर्थन पर निर्भर है। जनता के समर्थन के लिए गाँवों को संगठित करना, सामाजिक अत्याचारों का उच्छेदन करना, ग्रामीण जनता को जाग्रत करना अत्यंत आवश्यक है। यह उम्मीद करना कि ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रस्तावों और धमकियों से डरकर स्वराज्य दे देगी, दुराशा मात्र है। 


1928 के कलकत्ता काँग्रेस ने स्वराज्य वाले प्रस्ताव के साथ ही साथ कुछ अन्य कार्यक्रम भी निश्चित किए थे। जिनमें एक प्रमुख विषय था–अछूतोद्धार। दिसंबर 1929 में आयोजित लाहौर काँग्रेस में पंडित जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष चुने गए। यह उल्लेखनीय बात है कि जनवरी 1930 के अंक में पंडित नेहरू की एक पूरे पृष्ठ पर तस्वीर प्रकाशित हुई, और उतना ही महत्त्वपूर्ण है उस तस्वीर के साथ पंडित नेहरू का वक्तव्य। नेहरू के शब्द हैं, “भारतवर्ष की राजनीति में यह एक विचित्र बात है कि जो लोग राजनीतिक बातों में गरम कहे जाते हैं, वे सामाजिक बातों में नरम होते हैं! हमें अब तक इतनी कम सफलता क्यों मिली है–इसका थोड़ा सा कारण इससे समझ में आ सकता है। जब तक राजनीति के साथ ही साथ सामाजिक प्रश्नों पर विचार नहीं किया जाता तब तक देश की उन्नति एक बार ही असंभव है।”68 यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, इस प्रश्न में तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व के वर्गीय चरित्र पर टिप्पणी है। नेहरू किसी का नाम नहीं लेते। वैसे लोग भारतीय समाज में बहुतायत में थे और काँग्रेस के भीतर भी बड़ी संख्या में थे। किंतु, ‘चाँद’ ने उन्हें पहचानने में हिचकिचाहट का परिचय नहीं दिया। स्थिति की विडंबना देखिए कि ‘अछूतोद्धार’ के लिए बनी काँग्रेस की उपसमिति में दो सदस्य थे–सेठ जमना लाल बजाज और मदनमोहन मालवीय। जनवरी 1930 के अंक में ‘रंगभूमि’ स्तंभ के अंतर्गत ‘काँग्रेस और अछूत’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में इन दोनों महानुभावों के वर्गीय चरित्र की अच्छी पड़ताल की गई है। जमनालाल बजाज ने कराची में ‘अछूतों’ की सभा में यह कहा कि ‘अछूत’ जनगणना के समय खुद को हिंदू बताएँ, अछूत नहीं। ताकि, सरकार को अछूतों की अधिक संख्या का पता नहीं चलेगा और वह भारतवासियों की कमज़ोरियों के लिए उन्हें लज्जित न कर सकेगी। जमनालाल बजाज के इस विचार पर ‘चाँद’ ने टिप्पणी की, “हम नहीं समझते कि इससे बढ़कर अछूतोद्धार का ढोंग और क्या हो सकता है!! सेठ जी के इस कथन से मालूम होता है कि अछूतोद्धार समिति अछूतों की दशा सुधारने के लिए इतनी उत्सुक नहीं है, जितना वह सरकार की दृष्टि में उच्च वर्ण के हिंदुओं को प्रतिष्ठित बनाने के लिए व्याकुल है! रोग को मिटाने का प्रयत्न नहीं किया जा रहा है; प्रयत्न किया जा रहा है उसे छिपाकर संसार की आँखों में धूल झोंकने का!!---सच बात तो यह है कि काँग्रेस अमीरों की संस्था है।----काँग्रेस का प्रधान उद्देश्य अछूतों को फुसला कर उनके द्वारा अमीरों के स्वराज्य का समर्थन कराना है।”69 


नवम्‍बर 1930 (साभार : केन्‍द्रीय पुस्‍तकालय, इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय) 


‘चाँद’ ने समिति के दूसरे सदस्य मदन मोहन मालवीय की भी ख़बर ली। वह पूरा अंश देखिए, “पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने मुलतान में उच्च वर्ण के हिंदुओं को समझाते हुए कहा कि अछूत लोग हमलोगों की (उच्च वर्ण के हिंदुओं की, जिनमें से महामना मालवीय जी भी एक हैं) बहुत अधिक सेवा करते हैं। इसलिए हमलोगों को उनके साथ सहानुभूति करनी चाहिए! (They serve us most, hence require our sympathy) ----इस एक वाक्य के द्वारा महामना मालवीय जी ने उच्च वर्ण के हिंदू काँग्रेस वालों की मनोवृत्ति को बड़ी सफलतापूर्वक प्रकट कर दिया। महामना के कथन का स्पष्ट आशय यह है कि अछूतों को थोड़ा बहुत अधिकार इसलिए मिलना चाहिए कि वे उच्च वर्ण के हिंदुओं के उपयोग की वस्तु हैं। समाज में स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से उन्हें कोई नैसर्गिक अधिकार प्राप्त नहीं है!”70 


‘चाँद’ ने इस बात की नोटिस ली कि मदन मोहन मालवीय अछूतोद्धार के नाम पर प्राप्त धन से अछूतों के लिए अलग मंदिर एवं कुएँ बनवा रहे हैं। और, यह एक प्रतिगामी रवैया है। इस टिप्पणी में दक्षिण भारत, विशेषकर मद्रास में चल रहे ब्राह्मण-अब्राह्मण संघर्ष की ओर भी संकेत है। साथ ही, बहुत स्पष्टता के साथ एक निर्णायक मत यह कि, “यदि अछूतों की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस समय उनके लिए मंदिर प्रवेश का अधिकार उतना आवश्यक नहीं है, जितना शिक्षा तथा अन्य सुधार।---जिस जाति के आदमियों को महीने भर तक पाखाना साफ करने के लिए एक पैसा प्रति व्यक्ति के हिसाब से मजूरी मिलती है, उस जाति को मंदिरों से क्या काम? वह स्वराज्य लेकर क्या करेगी?”71  


‘अछूत’ समस्या पर ‘चाँद’ का यह स्टैंड उसके पूर्व के आर्यसमाजी रवैये और सुधारवादी पैटर्न से भिन्न है। हालाँकि, यहाँ न तो अंबेडकर का सीधा उल्लेख है और न ही पेरियार का हवाला। पर, उनके विचारों और राजनीति की धमक साफ सुनाई देती है। काँग्रेस के यथास्थितिवाद की आलोचना ‘चाँद’ में पहले भी मिलती है, किंतु उसके नेतृत्व (विशेषकर मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं) की वर्णीय एवं वर्गीय पहचान को उजागर करते हुए उसे आलोचना का विषय बनाना, पहली बार होता है। 


यहाँ एक प्रश्न उठता है कि काँग्रेस नेतृत्व के वर्णीय एवं वर्गीय पहचान को मूल्यांकन का आधार बनाना क्या ‘चाँद’ के स्टैंड में बदलाव का सूचक है? या, यह भी एक बहाव का ही परिणाम है? मद्रास और महाराष्ट्र से आने वाली बदलाव के बयार के साथ हो लेने का चलन है? कितनी गहराई है ‘चाँद’ के इस स्टैंड में? या फिर वह केवल भ्रम है! शाब्दिक भ्रम! 


इसे समझने के लिए फरवरी 1930 के अंक का संपादकीय देखा जाना चाहिए। ऊपर उल्लेख है कि जनवरी अंक में पंडित नेहरू की तस्वीर और उनके कथन को प्रकाशित किया गया था। फरवरी के संपादकीय में बहुत विस्तार से पंडित नेहरू के विचारों की आलोचना की गई है। ‘चाँद’ की पंडित नेहरू से आपत्ति कई कारणों से है। मूल आपत्ति तो यह है कि पंडित नेहरू साम्यवादी हैं और वे भारतीय इतिहास और संस्कृति से अपरिचित और उदासीन हैं! उनपर कार्ल मार्क्स और लेनिन का प्रभाव अधिक है किंतु (दुर्भाग्य!) कबीर और दयानंद का नहीं है! पंडित नेहरू के अनुसार भारतीय समाज का संगठन ‘असमानता’ के सिद्धांत पर है। ‘चाँद’ के अनुसार यह पंडित नेहरू के ‘अज्ञान’ और ‘विद्वेष’ का सूचक है। ‘चाँद’ के अनुसार पंडित नेहरू के भाषणों में ‘भारतीय स्वराज्य’ की झलक नहीं मिलती! पंडित नेहरू के समक्ष तीन समस्याएँ हैं-अल्पसंख्यक समस्या, देशी रियासतों की समस्या, मजदूरों और किसानों की समस्या। जबकि ‘चाँद’ के अनुसार मुख्य तीन समस्याएँ ये होनी चाहिए थीं–बाल विवाह निषेध, स्त्रियों को पर्दे से निकालना और उनकी शिक्षा, दलित और अस्पृश्य जाति का उद्धार। ‘चाँद’ के अनुसार हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रश्न से बड़ा प्रश्न है हिंदुओं में जातिगत वैमनस्य को समाप्त करना! पंडित नेहरू के अनुसार यदि आर्थिक लड़ाई के प्रश्न को हम हल कर लें तो जाति और सम्प्रदाय का प्रश्न अनुपयोगी हो जाएगा। जबकि ‘चाँद’ के अनुसार ये ‘काल्पनिक युग’ की बातें हैं।


‘चाँद’ यह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि भारतीय समाज का निर्माण असमानता के सिद्धांत पर हुआ है। यानी, जो असमानता दिखाई दे रही है वह तो ऊपरी है, वायवीय है; गोया उसे आसानी से समाप्त किया जा सकता है। मानो, ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ के भेद को जैसे समाप्त किया जा सकता है, वैसे ही अछूत जाति के साथ होनेवाले भेद को! ‘चाँद’ ने बिलकुल सही बात कही कि, “स्‍वराज्य स्थापित करने की क्रिया समाज के भीतर से ही आरंभ होनी चाहिए। जब तक भारतीय समाज में जात-पाँत और मत-मतांतरों के विद्वेष विद्यमान रहेंगे, तब तक न तो विदेशी सरकार को रोकने और गालियाँ देने से देश का कोई लाभ हो सकता और न विशाल और संगठित ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध बगावत का झंडा खड़ा करके पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करने से।”72 


किंतु यह कैसे हो? ‘चाँद’ चाहता क्या है? उसके ‘चाहने’ को देखें तो स्वयं उसकी वर्णीय और वर्गीय पहचान उजागर हो जाती है। उसका दुख है कि देश में कोई न तो राष्ट्रीय भाषा है, न राष्ट्रीय वेश, न कोई जातीय सभ्यता है और न कोई रहन सहन की कोई राष्ट्रीय प्रणाली! ऐसे में साम्यवाद के काल्पनिक युग (जिसकी चाहत पंडित नेहरू को है) के “शुभागमन का स्वप्न देखना छोड़कर शीघ्र से शीघ्र भारत के लिए राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रीय वेश और रहन-सहन की राष्ट्रीय प्रणाली का निर्माण करना आरंभ कर दें।”73 


यह ‘राष्ट्रीय’ आग्रह कितना उदार है, इसे समझने की ज़रूरत है! पंडित नेहरू की प्राथमिकताएँ भिन्न हो सकती हैं, हालाँकि उन्होंने समाज-सुधार के प्रश्नों पर चुप्पी नहीं साधी थी और न ही विरोधाभासी रवैया अपनाया था, जैसा कि काँग्रेस के भीतर के कुछ नेता अपनाए हुए थे; किंतु जिस ‘राष्ट्रीय’ आग्रह पर रामरख सिंह सहगल उन्हें परखने की कोशिश करते हैं; उसमें वैविध्य के लिए, निजता के लिए, हाशिए के लोगों के लिए कोई संभावना नहीं है। आखिरकार, उनका यही आग्रह क्यों था कि नेहरू आर्थिक प्रश्न को महत्त्व देने के बजाय हिंदुओं में अंतर्जातीय विवाह, सहभोज आदि को अपना केंद्रीय विषय बनाएँ। क्या यह समस्या को उसके कारणों को जाने बिना हल कर देने का उतावलापन नहीं है? क्या वह ‘राष्ट्रीय’ आग्रह मूलतः सर्वसत्तावादी नहीं है? अगर इस तरह देखें तो मदनमोहन मालवीय और रामरख सिंह सहगल की दृष्टि में कोई तात्विक अंतर नहीं है। ऊपरी तौर पर ये भले भिन्न दिखाई दें; मालवीय स्त्री और जाति के सवालों को उठने से पहले ही ढँक देना चाहते हैं, उनकी उदारता ‘दया’ से अधिक शायद ही कुछ है; रामरख सिंह सहगल उन प्रश्नों को उठाते तो हैं, किंतु समाधान जिस उद्देश्य से और जिस रूप में चाहते हैं, वह स्थायी नहीं बल्कि दुविधाग्रस्त है। पर्दे और अंतहीन शोषण की शिकार स्त्रियाँ और दलित जातियाँ तो स्वयं में उपनिवेश हैं! उनका भला कैसा राष्ट्र! कैसा धर्म! कैसी सामूहिक पहचान! 


अप्रैल 1930 के अंक में ‘समाचार संग्रह’ स्तंभ में डॉक्टर अंबेडकर द्वारा नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के आंदोलन का समाचार प्रकाशित है। इसमें ब्राह्मणों और शंकराचार्य की हठधर्मिता की आलोचना है। स्मरण रहे कि अप्रैल 1930 में ही नमक सत्याग्रह शुरू हुआ जिससे देश में पुनः एक नई चेतना और उत्साह का संचार होता है। इसका प्रभाव ‘चाँद’ में भी दिखाई देता है। यह ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि ‘फाँसी अंक’ के बाद से ‘चाँद’ का तेवर तनिक बदले हुए रूप में दिखाई देने लगता है। वे पन्ने जो हिंदू-मुस्लिम तनाव की रिपोर्टों से भरे रहते थे, वे अब लगभग नहीं दिखाई देते हैं। हम कह सकते हैं कि नमक सत्याग्रह ने वैसी ख़बरों और उन ख़बरों को चटकारे के साथ परोसनेवालों को एकबारगी पीछे धकेल दिया!


जून 1930 का संपादकीय ‘कानून या काल’ शीर्षक से प्रकाशित है। अंग्रेजी सरकार द्वारा 1910 के प्रेस ऐक्ट को कुछ नई धाराओं के साथ 27 अप्रैल 1930 को पुनः लागू करने पर यह संपादकीय केंद्रित है। देश की विभिन्न भाषाओं की अनेक पत्र-पत्रिकाओं को उक्त ऐक्ट का शिकार होना पड़ा था। उन्हें या तो भारी जमानत की राशि चुकानी पड़ी या बंद हो जाना पड़ा। ऐसे कई पत्रों का वहाँ उल्लेख है। 1930 के इस नए ऐक्ट ने अस्तित्व में आते ही बनारस के ‘आज’ और कानपुर के ‘प्रताप’ को अपन शिकार बना लिया। ‘चाँद’ ने घोषणा की कि इस ‘अनर्थकारी’ कानून के विरोध में अब ‘संपादकीय विचार’ और ‘रंगभूमि’ स्तंभ बंद किया जा रहा है।74 इस अंक में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महिला नेतृत्वकर्ताओं, यथा–सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, कस्तूरबा गाँधी, स्वरूपरानी नेहरू, कमला नेहरू, कृष्णा नेहरू, उमा नेहरू आदि की तस्वीरें संकलित हैं। अंक का पूरा एक पृष्ठ ‘देशभक्ति के अपराध में जेल जानेवाली तीन महिलाएँ’ शीर्षक से है। उक्त पृष्ठ पर कमलादेवी चटोपाध्याय, सरोजिनी नायडू और रुक्मिणी लक्ष्मीपति के चित्र प्रकाशित हैं। इलाहाबाद सहित देश के विभिन्न स्थानों पर महिलाओं द्वारा शराब और विदेशी वस्त्रें के बहिष्कार, सरोजिनी नायडू की गिरफ्तारी के विरोध की कई खबरें इस अंक के ‘विश्व वीणा’ स्तंभ में हैं। ‘अंग्रेज स्तोत्र’ शीर्षक से बंकिम चंद्र की व्यंग्य रचना का अनुवाद भी अंक में संकलित है। 


पूर्व की घोषणा के अनुरूप जुलाई 1930 के अंक में ‘संपादकीय विचार’ और ‘रंगभूमि’ नहीं है। कृष्णा नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित समेत कई महिला आंदोलनकारियों एवं सामाजिक क्षेत्र की प्रबुद्ध महिलाओं के चित्र इस अंक में प्रकाशित हैं। चूँकि मौका विदेशी वस्त्रें के बहिष्कार का था तो ‘चाँद’ ने ‘विश्ववीणा’ स्तंभ में 1905 के स्वदेशी आंदोलन के समय गोपालकृष्ण गोखले, लाला लाजपत राय आदि के द्वारा आंदोलन के पक्ष में दिए गए विचारों को यहाँ पुनः प्रस्तुत किया। ‘विश्व दर्शन’ स्तंभ में स्वतंत्रता संग्राम में जेल जानेवाली महिलाओं की सूची के साथ-साथ देश और विदेश से उनकी सक्रियता की छोटी-बड़ी विभिन्न घटनाओं का सार भी वहाँ संकलित है। उन ब्यौरों से गुज़रते हुए दो बातें साफ हो जाती हैं। पहली, स्त्रियाँ अब पर्दे की प्रथा को तोड़कर आगे आ रही थीं और उनका आगे आना केवल प्रतीकात्मक नहीं था। वे शारीरिक कष्ट झेलने के लिए तैयार थीं। दूसरी बात यह कि उनका इस प्रकार बाहर निकलना महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हो रहा था। स्त्रियाँ विदेशी वस्त्रें का बहिष्कार कर रही थीं, गिरफ्तार हो रही थीं, जमानत देने से इनकार कर रही थीं और केवल भारत में ही नहीं, इंगलैंड में भी। 


‘अगस्त-सितंबर’ 1930 के अंक में पुनः स्वतंत्रता संग्राम की कई नायिकाओं, यथा-सत्यवती देवी, इंदुमती गोयनका, उर्मिला देवी, मोहिनी देवी, विमल प्रतिभा देवी, ज्योतिर्मयी गांगुली की तस्वीरें प्रकाशित हैं। ये सभी अंग्रेजी सरकार द्वारा दंडित की गई थीं। बंबई के आजाद मैदान में स्त्रियों पर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज की तस्वीर भी इस अंक में है। ‘विश्व दर्शन’ स्तंभ में देशभर की स्त्रियों की वीरता, अंग्रेजी राज को उनसे मिलनेवाली चुनौती, उनकी गिरफ्ऱतारियों का अत्यंत रोमांचक वर्णन ‘सत्याग्रह संग्राम और महिलाएँ’ शीर्षक से है। हम देखें कि ‘चाँद’ में समूचा विवरण उसके स्वभाव के अनुरूप अत्यंत आवेगपूर्ण ढंग से व्यक्त है। मानो, यह ‘आवेग’ ही उसके संपादक का स्थायी भाव हो। कुछ विवरण देखें। बंबई के आज़ाद मैदान में सोलह वर्षीया कृष्णकुमारी सरदेसाई राष्ट्रीय झंडा ली हुई थीं। “उनके ऊपर चार बार लाठियों से आक्रमण किया गया, पर उन्होंने झंडे को न छोड़ा। एक सार्जेंट ने उनसे कहा–‘झंडा दे दो और यहाँ से हट जाओ।’ वीरबाला ने उत्तर दिया–‘मृत्यु से पूर्व यह असंभव है।’ वह धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दी गई, पर उसी समय उठ खड़ी हुई। इसी प्रकार उनको चार बार गिराया गया और तब वह बेहोश हो गईं। जब उनकी आँखें खुलीं तो वे घायलों की डोली में थीं और झंडा उनके हाथों में छाती से लगा हुआ था।”75

 

कहना न होगा, ‘चाँद’ को यह भली-भाँति पता था कि पाठकों को किस प्रकार प्रेरित-प्रभावित किया जा सकता है। किसी ख़बर के किस हिस्से को ‘चाँद’ में जगह देनी है, जिससे कि वह पाठकों को उत्तेजित करे, सहगल की इसमें मास्टरी थी। 

एक अन्य उदाहरण देखिए, कलकत्ता के बड़ा बाजार में रमादेवी नाम की एक वृद्धा पिकेटिंग करती हुई गिरफ्तार हुईं। मजिस्ट्रेट से वृद्धा को छह मास की सजा मिली। ‘चाँद’ ने उसका ब्यौरा इस प्रकार प्रस्तुत किया, “उसने अदालत में कहा–‘अगर मैंने कोई अपराध किया हो तो मुझे मार डालो, पर जेल मत भेजो।’ इस पर मजिस्ट्रेट ने कहा कि अगर तुम भविष्य में पिकेटिंग न करने की प्रतिज्ञा करो तो तुमको छोड़ा जा सकता है। इस पर उस वीर महिला ने उत्तर दिया कि–‘यह तो न होगा। तुम चाहे जो करो, पर जब तक मेरी जान में जान है, मैं पिकेटिंग करना न छोड़ूँगी।’”76 यानी, बहुत सचेत ढंग से वैसी ख़बरे प्रस्तुत की जा रही थीं, जो पाठकों में जोश उत्पन्न करे। जो उन्हें खतरे उठाने के लिए तैयार करे। इन समाचारों का लगभग पूरा हिस्सा महिलाओं पर केंद्रित है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि लक्ष्य केवल पाठिकाएँ थीं। 

उल्लेखनीय है कि ‘सत्याग्रह संग्राम और महिलाएँ’ शीर्षक उक्त समाचार और उसी अंक में प्रकाशित अनूप शर्मा, बी.ए. की ‘स्त्रियों के आदर्श’ शीर्षक कविता के लिए ‘चाँद’ से एक हजार रुपए की जमानत ली गई।77 यानी, अंग्रेजी राज को ये चीजें चुभ रही थीं। स्वदेशी आंदोलन ने अंग्रेजी राज को आर्थिक एवं वैचारिक, हर रूप से कमज़ोर किया था। कई महीनों के अंतराल के बाद नवंबर 1930 के अंक में पुनः ‘संपादकीय विचार’ प्रकाशित हुआ। इसमें ऑर्डिनेंस, स्त्रियों की जागृति, अछूतों की समस्या और स्वराज्य, भारत की आर्थिक दुरवस्था तथा स्वदेशी आंदोलन की प्रगति शीर्षकों के अंतर्गत विचार संकलित हैं। इस अंक के ‘संपादकीय’ में पहली बार डॉ. अंबेडकर के विचारों को जगह मिली। यहाँ डॉ. अंबेडकर की इस कारण प्रशंसा की गई है कि उन्होंने अछूतों की समस्या का समाधान, ब्रिटिश राज में नहीं, स्वराज्य में माना है। कहना न होगा, अछूत-समस्या पर ‘चाँद’ और डॉ. अंबेडकर के विचारों में तात्विक भिन्नता है। ‘चाँद’ के विचारों में उग्र सहानुभूति के लक्षण भरपूर देखे जा सकते हैं, किंतु उसकी सहानुभूति विशाल हिंदू छाते के नीचे अछूतों को खड़ा करने में ही अपनी सार्थकता तलाशती है। वहाँ चिंता इस बात की रहती है कि कहीं वे दूसरे धर्म का दामन न स्वीकार कर लें! जबकि अंबेडकर के अनुसार “अछूतों के लिए सबसे पहिली आवश्यकता आर्थिक सुधार की ही है। बिना आर्थिक उन्नति के वे और किसी प्रकार की उन्नति करने में सदा असमर्थ रहेंगे।”78 

नवंबर 1930 का अंक स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के चित्रें का एक एलबम ही है। इसमें लाहौर-षड्यंत्र केस के कुछ सेनानियों–सुखदेव, राजगुरु, महावीर सिंह, गया प्रसाद, विजय कुमार सिंह, कमलनाथ तिवारी, प्रेमदत्त, यतींद्र नाथ सान्याल, देसराज, अजय कुमार घोष; राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने वाले कुछ सज्जनों, जिनमें डॉ. अंबेडकर भी हैं; देश की विभिन्न कौंसिलों में चुने गए दलित नेताओं–भीखन मेहतर, राम दयाल चमार, रामजीदास नाई, डालू मोची, भगत चंदीमल चमार; सत्याग्रह संग्राम की कुछ महत्वपूर्ण आहुतियाँ–महात्मा गाँधी, विठ्ठल भाई पटेल, सरदार पटेल, डॉक्टर अंसारी, मदन मोहन मालवीय, मौलाना आजाद, मोतीलाल नेहरू, एम वी अभ्यंकर, भगवानदीन, कमला देवी चटोपाध्याय, रुक्मिणी लक्ष्मीपति, गौर शंकर भार्गव और उनकी पत्नी आदि के चित्र इस अंक में प्रकाशित हैं। इसी अंक में एक पूरे पृष्ठ पर पंडित जवाहर लाल नेहरू की तस्वीर अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत है। न केवल तस्वीर है, बल्कि नेहरू के सम्मान में ‘बिस्मिल इलाहाबादी’ एक कविता भी चित्र के साथ है।79 इस अंक में एक पूरा लेख लाला लाजपत राय की पुत्री उर्मिलादेवी शास्त्री के जीवन एवं स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रियता पर केंद्रित है। मेरठ में पिकेटिंग करते हुए वे गिरफ्तार हुई थीं और उन्हें छह मास की सजा मिली थी। उर्मिला देवी ने जेल जाते समय मेरठवासियों को ‘प्रत्येक घर से एक आहुति’ का संदेश दिया। उनके संदेश को इस लेख में सोद्देश्य संकलित किया गया है। अंक के ‘विश्व वीणा’ स्तंभ में भी गिरफ्तार हुए कई कार्यकर्ताओं की तस्वीरें प्रकाशित हैं। इसी स्तंभ में प्रेमचंद का लेख ‘संग्राम में साहित्य’, ‘हंस’ से साभार संकलित है। 

अंग्रेजी शासन की मानसिकता को व्यक्त करने के लिए इस स्तंभ में दो अंग्रेजों–सर विलियम जॉयन्सन हिक्स और लॉर्ड रॉदरमियर के विचारों को संकलित किया गया है। हिक्स का विचार है कि, हिन्दुस्तान को हमने इस उद्देश्य से नहीं जीता था कि इससे हम भारतीयों की भलाई करेंगे।----भारत को जीतने में हमारा एक ही उद्देश्य था, वह यह कि ब्रिटेन के माल की खपत के लिए हमें बाज़ार मिल जावे। हम लोगों ने भारत को तलवार के बल से जीता था और तलवार के बल से ही हम उसे अपने हाथ में रखेंगे।”80 वहीं, रॉदरमियर का मानना है कि, “भारत के हाथ से निकलते ही ‘ब्रिटेन की महाशक्ति की इतिश्री हो जाएगी।’----ग्रेट ब्रिटेन के हर स्त्री और पुरुष की आमदनी में पौंड पीछे कम से कम चार शिलिंग, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से, भारत से आता है।---ब्रिटिश जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हम अपने साम्राज्य के सबसे बड़े रत्न (the most vital of all the assets of the British Empire) को एक क्षण के लिए भी खोने को तैयार नहीं है। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि भारतवर्ष हमारा सर्वस्व है–इससे कम कुछ भी नहीं।”81 एक उल्लेखनीय बात यह है कि इसी दौरान ‘चाँद’ में अंग्रेजी राज की अनीतियों से संबंधित कार्टून भी ख़ूब छपे। 

निश्चय ही, ‘चाँद’ संपादक को अंग्रेजी राज की प्रतिक्रिया का अनुमान रहा होगा। सो, दिसंबर 1930 के अंक में यह पुनः घोषणा की गई कि कुछ दिनों के लिए ‘संपादकीय विचार’ स्थगित किया जा रहा है। नवंबर अंक की तरह इस अंक में मुखर सामग्री नहीं है फिर भी गोलमेज सम्मेलन और रूस के क्रांतिकारी दल, वहाँ की स्त्रियों की जागृति, मथुरा की काँग्रेस कार्यकर्ता मनोरमा देवी के निधन से संबंधित सामग्री और कुछ व्यंग्य कार्टून अंक में संकलित हैं। मथुरा लाल शर्मा का लेख ‘जाग्रत एशिया’ प्रकारांतर से संपादकीय की कमी को पूरा करनेवाला है। एशिया के ब्याज से कही गई बातों का लक्ष्य भारत ही है। यही स्थिति जनवरी 1931 के अंक की है। उक्त अंक में भी संपादकीय नहीं है। अंक में कई व्यंग्य कार्टून, ‘जाग्रत एशिया’ शीर्षक लेख का शेषांश, नवजादिक लाल श्रीवास्तव का लेख ‘कोरिया का स्वाधीनता संग्राम’, कई राष्ट्रीय नेताओं और राजनैतिक बंदियों के चित्र, जहूर बख़्श का लेख ‘विद्यार्थी और देशभक्ति’ जैसी सामग्री का सीधा संबंध स्वतंत्रता आंदोलन से है। 

दो मास के अंतराल के बाद फरवरी 1931 में ‘संपादकीय विचार’ पुनः प्रकाशित है। शीर्षक है–एशियाई देशों का राष्ट्रीय विकास। आधुनिक राष्ट्रीयता, अंतर्राष्ट्रीयता, पश्चिम का आर्थिक साम्राज्यवाद, एशिया में उसका विस्तार, लीग ऑफ नेशंस, सावियत रूस की नीतियाँ आदि का इस लेख में तार्किक और उम्मीद भरे ढंग से विश्लेषण किया गया है। साम्राज्यवाद के अंत का सपना देखनेवाले इस संपादकीय में आर्थिक साम्राज्यवाद के तीन सूत्र बताए गए हैं–आर्थिक सुविधाएँ, राजनैतिक प्रभुत्व और प्रचार।82 साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने प्रसार के लिए उन देशों का चुनाव करती हैं–जो कृषि प्रधान हो और वहाँ कल-कारखानों की वृद्धि न हुई हो, जहाँ आधुनिक राष्ट्रीयता (जिसमें विदेशियों से घृणा का भाव होता है) न हो और जो देश आजकल के प्रचार के साधनों, पद्धतियों और उद्देश्यों से अपरिचित हो।83 इस लेख में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि पश्चिम के लोभ ने एशिया में आर्थिक जागरण पैदा किया है और वही जागरण साम्राज्यवाद के अंत का कारण भी बनेगा। जब साम्राज्यवादी देश साम्यवाद को स्वीकारने पर बाध्य हो रहे हैं तो यह एशिया को भी स्वीकारना होगा। संपादकीय की अंतिम पंक्तियाँ, रामरख सिंह सहगल के विचारों में जगह पानेवाले नए विचार-पुंजों की ओर संकेत करती हैं। यह पूर्व में भी देखा जा चुका है कि सहगल हवा की बदलती रुख को पहचानने में माहिर थे और उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ देने के आग्रही भी, यहाँ संपादकीय का अंत वे इस प्रकार करते हैं, फ्रूस की सामाजिक व्यवस्था और एशिया की निवृत्ति प्रधान संस्कृति, यही दो चीज़ें हैं, जिनके सम्मेलन से भविष्य में मानव जाति का उद्धार होता हुआ दिखाई देता है।”84 यहाँ पुनः ध्यान रहे कि इस अंक में ‘रूसी राजक्रांति में स्त्रियों का हाथ’ शीर्षक एक लेख भी संकलित है। रूस के बहाने अपने पाठकों को संदेश तो देना है ही, स्त्रियों के जागरण के लिए महात्मा गाँधी के तरीकों के साथ-साथ उस मॉडल को भी सामने रखने का प्रयत्न ‘चाँद’ में होता है। इस अंक के कुछ व्यंग्य कार्टून, नवजादिकलाल श्रीवास्तव का लेख ‘आयरलैंड का स्वाधीनता संग्राम’, ‘बिहार के गाँधी, त्यागमूर्ति बाबू राजेंद्र प्रसादजी’, शोलापुर कांड में फाँसी पानेवाले युवक जिन्हें 12 जनवरी 1931 को फाँसी पर लटकाया गया-जगन्नाथ शिंदे, कुर्बान हुसैन, किशनलाल शारदा एवं मालप्पा धानशेटी एवं महात्मा गाँधी सहित काँग्रेस वर्किंग कमिटी के कुछ सदस्यों और राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय या गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के चित्र आदि का प्रत्यक्ष संबंध आजादी के आंदोलन से है। 

मार्च 1931 के आवरण पृष्ठ पर पंडित मोती लाल नेहरू का चित्र है और चित्र के साथ बिस्मिल इलाहाबादी की पंक्तियाँ भी।85 याद रहे कि 6 फरवरी 1931 को उनका निधन हो गया था। इस अंक में फिर से ‘संपादकीय विचार’ नहीं है। उसके स्थान पर ‘कानून या काल?’ और ‘नए आर्डिनेंस की भेंट’ मुद्रित है। पिछले अंकों की तरह इसमें भी व्यंग्य कार्टून, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के चित्र, नवजादिक लाल श्रीवास्तव का ‘मिश्र का स्वाधीनता संग्राम’, देवकी नंदन जी विभव का ‘राष्ट्रीय महायज्ञ में महिलाओं का बलिदान’ शीर्षक लेख आदि संकलित हैं, किंतु मोती लाल नेहरू और मौलाना मोहम्मद अली पर केंद्रित सामग्री अंक का विशेष आकर्षण है। मोती लाल नेहरू के दाह-संस्कार और ‘स्वतंत्रता दिवस’ के अवसर पर पुलिस की गोली से मरे 13 वर्षीय बालक माधव लाल ऊधव लाल की अंतिम यात्र का चित्र इस अंक की विशेष उपलब्धि हैं।  

अप्रैल 1931 का अंक कई कारणों से उल्लेखनीय है। रामरख सिंह सहगल के संपादन में प्रकाशित यह अंतिम अंक है। यों, इसके बाद भी वे ‘चाँद’ से जुड़े रहे, और जब तक जुड़े रहे तब तक ‘चाँद’ पर उनके व्यक्तित्व और नीतियों की छाप दिखाई देती रही। अप्रैल का अंक कराची काँग्रेस और भगत सिंह तथा उनके साथियों की शहादत के बाद आया था। अतः यह देखना रोचक है कि इतिहास के उस दौर पर ‘चाँद’ की क्या फौरी प्रतिक्रिया थी? 

इस अंक में भी संपादकीय नहीं है। अंक की पहली सामग्री कराची काँग्रेस के ‘राष्ट्रपति सरदार पटेल का भाषण’ है। अंक में एक पूरे पृष्ठ पर सरदार पटेल की तस्वीर भी प्रकाशित है। सरदार पटेल ने अपने भाषण में मोती लाल नेहरू, मोहम्मद अली एवं अख्यात वीरों की मृत्यु पर समवेदना प्रकट करते हुए भगत सिंह और उनके साथियों का विशेष रूप से उल्लेख किया। यह उल्लेख विशेष रूप से ध्यातव्य है। इसलिए भी कि गर्हित स्वार्थ से जब गाँधी बनाम भगत सिंह या गाँधी बनाम सरदार पटेल का द्वैत खड़ा किया जाता है तो देखें कि सरदार पटेल ने किन शब्‍दों में उनका आकलन किया था, “सरदार भगत सिंह, श्री सुखदेव और श्री राजगुरु की फाँसी से समस्त देश में असंतोष की आग फैल गई है। मैं उनकी कार्यपद्धति से सहमत नहीं हो सकता और इसमें संदेह नहीं कि राजनैतिक हत्या उतनी ही अवांछनीय है, जितनी एक साधारण हत्या। परंतु सरदार भगतसिंह और उसके साथियों के अनन्य देशप्रेम, उनके अतुल्य त्याग, साहस और निर्भीकता की मैं स्तुति किए बिना नहीं रह सकता। एक विदेशी गवर्नमेंट की निष्ठुरता का परिचय उतना अधिक और कभी नहीं मिला, जितना इन तीन वीरों को फाँसी पर लटकाते समय। समस्त राष्ट्र ने एक स्वर से उनकी फाँसी का विरोध किया और उनकी फाँसी की आज्ञा रद्द करने की प्रार्थना की, परंतु सब प्रार्थनाएँ निष्ठुरतापूर्वक ठुकरा दी गईं। ----ईश्वर इन वीर भक्तों की आत्माओं को शांति दे और उनके कुटुंबियों को इस बात से संतोष मिले, कि समस्त राष्ट्र ने उनकी मृत्यु पर ख़ून के आँसू बहाए हैं।”86

अप्रैल 1931 (साभार : अनुसंधान पुस्‍तकालय, बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद) 


‘चाँद’ ने अपना पूरा एक पन्ना भावपूर्ण रूप में इन शहीदों को समर्पित किया। सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की तस्वीर छापी और उस पन्ने को शीर्षक दिया–‘लाहौर कांड के तीन विप्लवकारी’/जिन्हें सारे देश के विरोध करने पर भी 23 मार्च की शाम 7 बजे लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी पर लटका दिया गया/खुश रहो अहले-वतन, हम तो सफर करते हैं। 

भगत सिंह की शहादत देश के लिए क्या मायने रख रही थी और उसका देशव्यापी प्रभाव कितना था, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मई के अंक में भगत सिंह और राजगुरु के परिवार के सदस्यों की तस्वीरें कई पृष्ठों में प्रकाशित हुईं ।   याद रहे कि ‘चाँद’ ने इस तरह का प्रकाशन इससे पहले कभी नहीं किया था। परिवार की बात करें तो मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू के परिवार के विभिन्न सदस्यों की तस्वीरें उसमें आती रहती थीं, किंतु उनकी तस्वीरें राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में प्रकाशित होती थीं। इसी तरह अप्रैल और मई अंक के कई पृष्ठों पर कराची काँग्रेस से संबंधित चित्र प्रकाशित हैं। और, यह सिलसिल आगामी महीनों के अंकों में भी जारी रहा। 

अप्रैल अंक में प्रकाशित महात्मा गाँधी पर आनंदी प्रसाद जी श्रीवास्तव की कविता, नवजादिकलाल श्रीवास्तव का ‘रूस का स्वाधीनता संग्राम’ शीर्षक लेख, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के चित्रें का प्रत्यक्ष संबंध आजादी के आंदोलन से है। इस अंक में एक लेख अलग से ध्यान खींचता है–सुप्रसिद्ध भारतीय राजनीतिज्ञों के मुक़द्दमे। इस अंक में तिलक और अरविंद घोष के मुकद्दमों का ब्यौरा है। इसमें तथ्यात्मक बातों से अधिक इस पर ध्यान है कि इसे पढ़कर पाठक प्रेरित और उत्तेजित हो! इसके लेखक का नाम वहाँ दर्ज़ नहीं है। ये मुकद्दमे 1908 के थे, किंतु 1931 में इनकी प्रस्तुति से यह अनुमान करना अनुचित नहीं है कि भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत ने इस लेख के लिए उस समय स्वतः पाठक तैयार कर दिए होंगे।

मई 1931 के आवरण पृष्ठ पर चरखा चलाती भारतमाता का चित्र है। याद रहे, पूर्व में भी यह तस्वीर ‘चाँद’ के आवरण पृष्ठ पर आ चुका है। इस अंक के संपादक त्रिवेणी प्रसाद, बी.ए. थे। उनके संपादन में जून का भी अंक आया। जुलाई अंक में भी संपादक के रूप में उनका नाम गया, किंतु उनके साथ स्थानापन्न संपादक के रूप में भुवनेश्वर नाथ जी मिश्र ‘माधव’ का भी नाम छपा। दरअस्ल, भगत सिंह की फाँसी के बाद जितेंद्रनाथ सान्याल ने ‘सरदार भगत सिंह’ शीर्षक से एक पुस्तक अंग्रेजी में लिखी थी। यानी, मार्च के अंतिम सप्ताह से लेकर मई के पहले सप्ताह के दरम्यान। जितेंद्र नाथ सान्याल इसके प्रकाशक और त्रिवेणी प्रसाद इसके मुद्रक थे। पुस्तक का मुद्रण ‘द फाइन आर्ट प्रिंटिंग कॉटेज, 28 एडमॉन्स्टन रोड, इलाहाबाद’ से हुआ था जो कि रामरख सिंह सहगल की संपत्ति थी। 12 जून को त्रिवेणी प्रसाद चाँद कार्यालय से गिरफ्तार किए गए। जितेंद्र नाथ सान्याल भी अन्यत्र गिरफ्तार किए गए। दोनों पर, 124-। के अनुसार राजद्रोह का मुकद्दमा चला। दोनों दोषी माने गए। जितेंद्रनाथ सान्याल को दो वर्ष की कड़ी सजा तथा त्रिवेणी प्रसाद को एक हज़ार रुपया जुर्माना, या उसे अदा न करने पर छह महीने की कड़ी सजा सुनाई गई। त्रिवेणी प्रसाद को अदालत ने ‘बुद्धिमान अथवा चरित्रबल का व्यक्ति’ नहीं जाना और ऐसी पुस्तक के प्रकाशन के खतरे से उन्हें अनजान माना, इसलिए सजा में रियायत मिली। आगे चलकर 17 जुलाई 1931 को भुवेनश्वर नाथ जी मिश्र ‘माधव’ भी गिरफ्तार हुए। यह दूसरी गिरफ्तारी ‘भविष्य’ में ‘गाँधी इरविन समझौते का श्राद्ध’ शीर्षक लेख लिखने के कारण हुई।87 उनके बाद शंकर लाल श्रीवास्तव ‘चाँद’ के संपादक हुए। किंतु मात्र दो महीने के लिए–अगस्त और सितंबर। अक्टूबर 1931 में ‘चाँद’ के संपादक धनीराम प्रेम बने। यानी, फाँसी अंक के साथ ‘चाँद’ के लिए संकट का जो सिलसिला आरंभ हुआ और वह ‘चाँद’ के लिमिटेड कंपनी बनने और अंततः रामरख सिंह की विदाई का कारण बना।  


रामरख सिंह सहगल द्वारा संपादित 'भविष्‍य' (साभार : सप्रे संग्रहालय)

एक सवाल उठता है कि रामरख सिंह सहगल ने ‘चाँद’ के संपादन का दायित्व दूसरों को क्यों दे दिया? दरअस्ल, 124-। के तहत देशद्रोह के आरोप में 2 मार्च 1931 को सहगल की गिरफ्तारी हुई। यह गिरफ्तारी खुदीराम बोस और ‘भारत और आयरलैंड’ संबंधी एक तुलनात्मक रचना ‘भविष्य’ में प्रकाशित करने के अभियोग में हुई थी।88 रामरख सिंह सहगल के पुत्र नरेंद्र सहगल ने अपने संस्मरण में जिक्र किया है कि  उन्हें 6 मास के कठोर कारावास और 500 रुपए का जुर्माना लगा।89 इस मामले में वे जमानत पर रिहा हुए। उन्होंने हाईकोर्ट में अपील दायर की। उनपर यह अकेला मामला नहीं था। प्रेस एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ बुक्स एक्ट के अनुसार भी उनपर एक मामला चला, जिसमें उन्हें 750 रुपए का जुर्माना अथवा छह सप्ताह के कैद की सजा सुनाई गई। उन्होंने इस मामले के खिलाफ अपील की तो मामला रद्द हो गया। तब सरकार ने सहगल के पक्ष में हुए फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की। इन फौजदारी मुकाबलों के अतिरिक्त एक दीवानी मामले, जिसमें सरकार से उन्हें हर्जाना मिलना था, में सरकार ने अपील कर रखी थी।90 सहगल पर कई रूपों में दबाव था, पहला नुकसान आर्थिक था, दूसरा दबाव सरकार कोपदृष्टि को सहते हुए ‘चाँद’ और ‘भविष्य’ को निकालना था। उन पर कंपनी के शेयरधारकों का भी दबाव था जो ‘चाँद’ के रंग-ढंग में बदलाव चाहते थे। इन स्थितियों के कारण 1931 के अप्रैल अंक के बाद उन्होंने संपादकीय दायित्व छोड़ा, अगले साल 1932 के दिसंबर में प्रेस के कीपर का पद छोड़ा और अंततः 1 जनवरी 1933 को ‘चाँद’ कंपनी के मैनेजिंग डाइरेक्टर का भी पद छोड़ दिया। 

रामरख सिंह सहगल के नेतृत्व में नवंबर 1922 से आरंभ हुई ‘चाँद’ की यह यात्र इस तरह एक पड़ाव पर पहुँचती है। इस यात्र की मूल विशेषता यदि चिह्नित करनी हो तो वह है–आवेग। यही ‘चाँद’ का स्थायी भाव था। इससे कोई इन्कार नहीं करेगा कि रामरख सिंह सहगल में खतरे उठाने का साहस था। वे पारखी थे। वे घटनाओं और समाचारों का मूल्य जानते थे। वे अपनी ओर से समाचारों में मूल्य भरते भी थे। इस स्वभाव ने उन्हें और उनकी पत्रिका को प्रसिद्धि और सफलता, दोनों दिलाई। किंतु, उस आवेग की सबसे बड़ी सीमा उसके पूर्वग्रह हैं। ऊपरी तौर पर ‘चाँद’ की पत्रकारिता निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ दिखाई दे सकती है_ उसमें मदनमोहन मालवीय की आलोचना और प्रशंसा, दोनों को पाया जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू की आलोचना और उनकी प्रशंसा, दोनों वहाँ हैं। किंतु, इसी से उसकी ‘राजनीति’ को पूर्वग्रह मुक्त नहीं कहा जा सकता है। उस दौर में, जब पक्षधरता आवश्यक थी, ‘चाँद’ और रामरख सिंह सहगल का पक्ष क्या था और उनके पूर्वग्रह क्या थे, इस पर विचार करना चाहिए। आजादी, सुधार और बराबरी उनके लक्ष्य थे। किंतु, किसलिए? वे चाहते हैं कि स्त्रियाँ घर की दहलीज से बाहर निकलें, पर्दा-प्रथा को त्यागते हुए राष्ट्रीय समर में भाग लें; ऐसी स्त्रियों को उन्होंने ‘चाँद’ के पृष्ठों पर ख़ूब जगह दी। लेकिन वे ऐसी स्त्रियों की ‘वीरता’ का पुरुषों के मानदंड पर मूल्यांकन करते हैं। उनकी प्रशंसा के लिए पुरुष शब्दावली इस्तेमाल करते हैं। यह कहा जा सकता है कि यह केवल उनकी सीमा नहीं है। परंतु, यह भी ध्यान रखें कि ‘चाँद’ का पुरुष एक स्त्री को यह अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है कि वह अपने प्रेम की तलाश ‘धर्म’ की चौहद्दी को लाँघ कर करे। बल्कि, ऐसी स्त्रियों के दमन तक के लिए ‘चाँद’ का ‘पुरुष’ तत्पर है। ‘चाँद’ में अछूतोद्धार की तड़प बहुधा दिखाई देती है, किंतु उसकी मूल चिंता कुछ और ही है! वहाँ चिंता इसलिए है कि शेष दुनिया के समक्ष ‘हिंदू धर्म’ की ‘छवि’ कलुषित न दिखाई दे और उससे भी बड़ी बात यह कि धर्मांतरण रुके। अगर संख्या घटने का भय नहीं होता तो शायद सुधार की भी चिंता नहीं होती। ‘चाँद’ के तीसरे पूर्वग्रह का संबंध भी इसी हिंदू मन से है। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि रामरख सिंह सहगल में ‘हिंदू’ ग्रंथि बहुत बड़ी थी। 1922 से ले कर 1931 तक के ‘चाँद’ को देखें तो पाएँगे कि असहयोग आंदोलन के धीमे पड़ने के साथ यह ग्रंथि उभार पर आ जाती है, और फिर क्रांतिकारी आंदोलन के उभार, फाँसी अंक के प्रकाशन के साथ मंद पड़ जाती है। इस दरम्यान यह बहुत सक्रिय है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। यह रामरख सिंह सहगल के स्वभाव का हिस्सा था। 1938 में जब उन्होंने ‘कर्मयागी’ का प्रकाशन शुरू किया तो लक्ष्य रखा कि “‘पत्रिका प्रत्येक मुसलमान को शैतान और प्रत्येक हिंदू को शिव समझ बैठने की हिमाकत नहीं करेगी।’ हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के सदा नजदीक लाने की चेष्ट करेगी।”91 यह स्पष्टीकरण शायद इसलिए ज़रूरी था क्योंकि ‘चाँद’ में उन्होंने यह काम भली-भाँति किया था। लेकिन ग्रंथि तो ग्रंथि है; रामरख सिंह सहगल इससे अंत-अंत तक इससे मुक्त नहीं हुए। जितेंद्रनाथ सान्याल की किताब ‘सरदार भगत सिंह’ का हिंदी अनुवाद अगस्त 1947 में ‘अमर शहीद सरदार भगत सिंह’ शीर्षक से कर्मयोगी प्रेस से प्रकाशन हुआ तो रामरख सिंह सहगल ने इस किताब का ‘प्रकाशकीय’ लिखा। मूल किताब उनके प्रेस से छपी थी, अब अनुवाद भी उन्होंने छापा। किताब में लाहौर षड्यंत्र केस की कार्रवाई का ब्यौरा भी प्रस्तुत किया गया था। सहगल ने इस ब्यौरे के संबंध में लिखा है, “इन पंक्तियों द्वारा ब्रिटिश न्यायालयों की धूर्तता तथा बेईमानियों का अध्ययन तो करेंगे ही, साथ ही यह भी देखेंगे, कि चाँदी के टुकड़ों तथा पद-लोलुपता की भावनाओं से प्रेरित हो कर मुसलमानों ने किस हद तक मुल्कप़फ़रोशी का व्यवसाय किया है! इस मामले की ‘जाँच’ के लिए अंग्रेजों ने ढूँढ़-ढूँढ़कर छटे हुए गुंडों को एकत्र किया था, जिसका जीता-जागता प्रमाण आपको प्रत्येक पृष्ठ में मिलेगा; शायद इसीलिए पुलिस विभाग में मुसलमानों का बहुमत आज भी हमें दिखाई देता है।”92 यानी, अपनी ग्रंथि को सामान्यीकृत कर देना, उसे सार्वजनिक सत्य के रूप व्याख्यायित करना और यह जिद भी रखना कि उसे सच माना जाए–यह रामरख सिंह सहगल के स्वभाव, लेखन और पत्रकारिता की सीमा है। सहगल ने केस की कार्यवाही की जानकारी को ‘दुर्लभ तथा प्रामाणिक’ कहा; पर वे यह बताना भूल गए कि उस केस के लगभग साढ़े चार सौ सरकारी गवाहों में कितने हिंदू और कितने मुसलमान थे! वे यह बताना भूल गए कि ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ पर होनेवाली दंडात्मक कार्रवाई का आदेश देने वाले संयुक्त प्रांत के चीफ सेक्रेटरी हिंदू थे न कि मुसलमान!93 यानी, देखे हुए को अनदेखा करना, यही पूर्वग्रह, ‘चाँद’ की ‘राजनीति’ की सीमा है। ‘अमर शहीद सरदार भगत सिंह’ के प्रकाशकीय में उन्होंने यह दर्ज़ किया था कि ‘चाँद’ का ‘फाँसी अंक’ सरदार भगत सिंह और उनके साथियों की मेहनत का नतीजा था94, पर सन् 1947 तक आते-आते वे भूल गए कि भगत सिंह की राजनीति में ऐसे सांप्रदायिक पूर्वग्रहों के लिए कोई जगह नहीं थी।



संदर्भ एवं टिप्पणियाँ 


1. चाँद, नवंबर 1922, पृ. 2 

2. वही

3. वही

4. वही, पृ. 2-3 

5. चाँद, दिसंबर 1922, पृ. 160–जालियाँवाला बाग की नृशंस घटना और महात्‍मा गाँधी के नेतृत्‍व में शुरू हुए असहयोग आन्‍दोलन के कारण पंजाब की महिलाओं में विशेष राजनैतिक जागृति दिखाई देती है। पार्वती देवी उनमें प्रमुख स्‍थान रखती हैं। ध्‍यान दें क‍ि पार्वती देवी नाम से कम-से-कम दो का उल्‍लेख सामान्‍य तौर पर मिलता है। एक, लाल लाजपत राय की बेटी और दूसरी कमालिया की पार्वती देवी का। सन्‍दर्भित पार्वती देवी, कमालिया की थीं। 1888 में लायलपुर में उनका जन्‍म हुआ था। जालंधर के कन्‍या महाविद्यालय में उनकी शिक्षा हुई थी। वे एक प्रभावी वक्‍ता थीं। 1922 से 1942 के बीच वे राजनीति में खूब सक्रि‍य रहीं। वे ‘स्‍वराज आश्रम’ से जुड़ी थीं। उन्‍होंने ‘कुमारी सभा’ और ‘बानर सेना’ का गठन किया था। 1968 में उनका निधन हुआ। देखें, परनीत हेयर का शोध प्रबन्‍ध–Women in colonial Punjab (1901-1947); पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला, पृ. 239 एवं 261 

6. वही 

7. चाँद, जनवरी 1923, पृ. 241–पार्वती देवी ने अपना बयान भारतीय महिलाओं को संबोधित करते हुए दिया, “भारतवर्ष की देवियों से मुझे बड़े विनय के साथ दो शब्द कहना है। प्रत्येक जाति का भाग्य वस्तुतः उसकी स्त्रियों के हाथ में होता है। जब तक भारतवर्ष की प्रत्येक पुत्री के दिल में मातृभूमि के लिए वैसी ही लगन न हो, तब तक उसके दिल में भारतमाता के दुख और दौर्भाग्य, दासता और दीनता वैसे ही न चुभे जैसे कि महात्मा गाँधी को चुभते हैं, तब तक स्वाधीनता का दिन बहुत दूर है, और पुरुषों के लिए वह नज़दीक नहीं आ सकता। इसलिए, मेरी बहनो हमारे ऊपर एक बड़े कर्तव्य और बड़ी उत्तरदायिता का भार है। आओ, हम सब, हममें से प्रत्येक, जो अपने को सच्ची स्त्री कहने का दम भरती हैं, उस भार को उठाने और धीरज और सन्तोष के साथ सब कष्टों को झेलने के लिए कटिबद्ध हो जाएँ, और अपना काम करती हुई मातृभूमि की स्वाधीनता के निकट लग जाएँ।” 

8. वही, पृ. 239 

9. वही

10. वही, पृ. 238

11. वही, फरवरी 1923, पृ. 329

12. वही, पृ. 328 

13. वही 

14. चाँद, अप्रैल 1923, पृ. 530 

15. वही, पृ. 540

16. चाँद, मई-जून 1923, पृ. 110-111

17. वही, पृ. 111

18. चाँद, जुलाई 1923, पृ. 149; इस अंक के आवरण पृष्ठ पर पुनः भारतमाता की तस्वीर है।

19. वही, पृ. 150 

20. चाँद, मार्च 1924, पृ. 388 

21. वही, पृ. 389 

22. चाँद, अप्रैल 1924, पृ. 476 

23. वही

24. वही

25. वही, पृ. 477 

26. चाँद, मई 1924, पृ. 76 

27. वही 

28. चाँद, जुलाई 1924, पृ. 215–सरला देवी (देखें, संदर्भ सं. 22) की मृत्यु पर भी ‘चाँद’ ने यही लिखा था, “ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वे उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें तथा उसी के समान भारतवर्ष में कन्या रत्न उत्पन्न करें।” ‘कन्या रत्न’ का यह प्रयोग ध्यान देने लायक है। 

29. जनवरी 1925 के अंक में ‘सती’ की दो सूचनाएँ प्रकाशित हैं। एक छिंदवाड़ा की और दूसरी छपरा की। छपरा की घटना का स्रोत ‘वॉयस और इंडिया’ नामक पत्र है। उसमें ‘पटना के सुप्रसिद्ध देशभक्त बाबू राजेंद्र प्रसाद जी’ ने उक्त आशय का एक पत्र प्रकाशित कराया था। छपरा के बाबू बब्बन सिंह असहयोग आंदोलन से जुड़े थे। वे स्त्रियों को सूत कातने और कपड़े बुनने की शिक्षा देते थे। खादी के प्रचार में उन्होंने अपनी ज़मीन भी रेहन रख दी। इन्हीं बाबू बब्बन सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी ने भी स्वयं को आग लगा लिया। राजेंद्र प्रसाद के पत्र की अंतिम पंक्तियाँ ध्यान देने लायक हैं, “आस पास के मुहल्ले में बिजली की तरह यह ख़बर फैल गई कि रामसूरत सती हो गई और हज़ारों लोग दर्शन के लिए एकत्र होने लगे। जिन दोनों प्राणियों ने खादी के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया था उनका इस तरह अंत हो गया। रामसूरत उस सच्ची सती का उदाहरण छोड़ गईं जिसके विषय में हमलोग पुस्तकों में तो बहुत कुछ पढ़ते हैं पर प्रत्यक्ष उदाहरण किंचित ही देखते हैं।” (देखें, पृ. 344) ‘सती’ का आकर्षण इतना बड़ा है कि प्रेमचंद अपनी कई आरंभिक कहानियों में उसका उत्फुल्ल अंकन करते मिलते हैं। ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ (1908) और ‘गुनाह का अगनकुंड’ (1910) शीर्षक कहानियों में यह देखा जा सकता है।

30. चाँद, जुलाई 1924, पृ. 193-194

31. वही, अगस्त 1924, पृ. 373–मार्च 1925 के अंक में ‘हमारे सहयोगी’ स्तंभ में ‘आर्यजीवन’ के हवाले से पुनः इसी आशय का एक समाचार प्रकाशित है। इसमें ‘वैश्य लड़की’ के ‘मुसलमान गुंडे’ द्वारा चुराए जाने का समाचार है। लड़की विवाहिता थी। उसकी माँ ने उसे छुड़ाने का सफल उद्योग किया। पश्चात, उसकी ‘शुद्धि’ की गई। किंतु, उसके पति ने उससे स्वीकारने से इंकार कर दिया। ‘आर्यजीवन’ के निशाने पर यहाँ जाति के नेतृत्वकर्ता ही हैं। पत्र कहता है कि “यदि विधर्मियों को यह पता लग जाए कि हिंदू जाति अपनी स्त्रियों को फिर वापिस लेकर मिला लेती है तब उनको यह साहस ही न हो।” (देखें, मार्च 1925, पृ. 538) 

32. चाँद, मार्च 1925, पृ. 571 

33. वही, पृ. 572 

34. वही, वेश्याओं द्वारा चरखा चलाने और सूत कातने का उल्लेख मई-जून 1925 के अंक में भी है। यह ख़बर ‘यंग इंडिया’ के हवाले से प्रकाशित है। वेश्या-सुधार के प्रश्न पर गाँधी इसमें एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं। उनके अनुसार इस कार्य में वास्तविक सफलता स्त्री-नेतृत्व से ही प्राप्त हो सकती है। वे लिखते हैं, “फिर यह सवाल ऐसा नहीं है कि जिसे पुरुष अपने हाथ में ले सकें। जब तक स्त्रियों में से ही असाधारण चरित्र बल वाली बहनें उत्पन्न होकर इन पतित बहनों के उद्धार का कार्य अपने हाथ में न लेंगी तब तक वेश्या वृत्ति की समस्या हल नहीं हो सकेगी।” (देखें, मई-जून 1925, पृ. 88-89)

इस प्रश्न पर ‘समाज और वेश्या मंडल’ शीर्षक से एक लेख अगस्त 1925 के अंक में भी है। उक्त लेख में यह चिंता प्रकट की गई है कि महात्मा गाँधी के अतिरिक्त किसी अन्य राजनीतिक नेता का इस ओर रत्ती भर भी ध्यान नहीं है। (देखें, अगस्त 1925, पृ. 310-312) 

35. चाँद, मार्च 1925, पृ. 573 

36. वही, पृ. 591 

37. यदि हम यह मानते हैं कि ‘चाँद’ की पत्रकारिता ने स्त्री-जागरण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया तो हमें यह भी मानने के लिए तैयार होना होगा कि इसने ‘हिंदी पट्टी’ में सांप्रदायिकता के विष को फैलाने में भी भूमिका निभाई। हिंदुओं की नामर्दी (मई-जून 1925), मस्जिद और बाजा (अक्टूबर 1926) जैसे कई अंशों को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए। 

38. चाँद, मई-जून 1925, पृ. 114

39. वही, पृ. 222

40. चाँद, सितंबर 1925, पृ. 327_ इस अंक के आवरण पृष्ठ पर ‘भारतमाता’ का चरखा लिए चित्र है। चित्र के साथ कैप्शन है–मुक्ति का साधन। 

41. वही, पृ. 328 

42. वही

43. वही, पृ. 329 

44. वही 

45. चाँद, मई 1926, पृ. 3

46. वही

47. वही, पृ. 5

48. वही

49. वही, पृ. 6 

50. वही

51. वही; जनवरी 1927 के अंक में ‘उत्तरदायित्व के पथ में’ शीर्षक संपादकीय में पुनः हिंदू महासभा पर आक्षेप किया गया है और कौंसिल प्रवेश के उसके उद्देश्य की निंदा की गई है। संपादकीय के अनुसार हिंदू संगठनों का उद्देश्य सामाजिक कार्यों पर ध्यान देना होना चाहिए। हिंदू नामधारी संगठन पर आक्रमण करते हुए मुख्य निशाना मदनमोहन मालवीय ही होते हैं। यह कोई अकेला अवसर नहीं है जब मालवीय, रामरख सिंह सहगल के निशाने पर आते हैं। जून 1927 के अंक में तो उनपर आरोपों की बौछार है। उक्त अंक में ‘विविध विषय’ के अंतर्गत ‘सारहीन आँसू’ शीर्षक से एक टिप्पणी प्रकाशित है। इससे पता चलता है कि मदनमोहन मालवीय अपने भाषणों में रोने लगते थे। उनके साथ श्रोता भी रोने लगते थे! इस प्रसंग में टिप्पणी देखिए, “हम अछूतोद्धार तथा विधवा संबंधी बहुत सी सभाओं में मालवीय जी के आँसुओं का नाटक देख चुके हैं, और देखते-देखते इतना ऊब गए हैं कि अब तो इस प्रकार के समाचारों से सर्वथा अरुचि सी हो गई है।-----हमें मालवीय जी से कोई व्यक्तिगत वैर नहीं है।---पर उनके अपकारों का भाग उनके उपकार से अधिक है। हम यह भी मानने के लिए तैयार हैं कि इन अपकारों का उत्तरदायित्व मालवीय जी पर नहीं_ वन् ‘लीडरी’ की माया, उनकी मानसिक दुर्बलता, उनकी सामाजिक संकीर्णता, उनकी धार्मिक भीरुता और उनकी न जाने कितनी ऐसी मनुष्योचित दुर्बलताओं पर है। राजनीति के क्षेत्र में मालवीय जी ने आदि से लेकर अंत तक श्रीयुत अरविंद घोष का विरोध किया। लोकमान्य तिलक के आयुकाल तक उनके विरुद्ध घोर आंदोलन करनेवाले लोगों में मालवीय जी का प्रमुख स्थान था, असहयोग के विरुद्ध आंदोलन करने का तथा बारडोली प्रोग्राम की हत्या कर असहयोग आंदोलन को नष्ट करने का अधिकांश श्रेय महामना मालवीय जी पर ही है।---क्या हमें मालवीय जी बतला सकते हैं कि उन्होंने हिंदू सभाओं में दिखलाऊ आँसू बहाने के अतिरिक्त हिंदू जाति की और कौन सी सेवा की है?” 

52. श्रीमती सरोजिनी नायडू के बंबई म्यूनिसिपलिटी का सदस्य निर्वाचित होने, स्थानीय एवं विदेश यात्र के समाचार ‘चाँद’ में प्रकाशित हुए। अगस्त 1925 के अंक में सरोजिनी नायडू का यह सुझाव प्रकाशित है कि महिलाओं को अधिक से अधिक म्यूनिसिपलिटी के चुनाव में खड़ा होना चाहिए। दिसंबर 1925 और जनवरी 1926 के अंक में उनके व्यक्तित्व पर विस्तृत सामग्री आई। जून 1926 और जुलाई 1926 के अंक में उनके इलाहाबाद आगमन पर ‘चाँद’ ने विस्तृत कवरेज दिया। जुलाई 1926 के अंक में श्रीमती रामेश्वरी नेहरू लिखित एक क़सीदा ‘भारतीय कोकिला का स्वागत’ और श्रीमती नायडू के व्याख्यान का अंश प्रकाशित है।

53. चाँद, अगस्त 1926, पृ. 388-390; इस विषय पर महात्मा गाँधी की टिप्पणी मार्च 1924 के अंक में पृ. 84 पर भी देखी जा सकती है।

54. चाँद, अगस्त पृ. 392-393

55. देखें, अगस्त 1925 में प्रकाशित ‘तबलीग आन्दोलन’ तथा अक्टूबर 1926 में प्रकाशित ‘मस्जिद और बाजा’ शीर्षक सामग्री। ‘मस्जिद और बाजा’ विषय पर 1926 में ‘माधुरी’ के अंकों में भी पर्याप्त चर्चा है। किंतु, माधुरी की प्रतिक्रिया ‘चाँद’ की तुलना में पर्याप्त संतुलित है। ‘चाँद’ वाली उग्रता और एजेंडा सेटिंग वहाँ नहीं है। 

56. देखें, नवंबर 1926 के अंक में प्रकाशित ‘हिंदू संगठन और महिला समाज’ तथा ‘स्त्री समाज पर इस्लाम का प्रभाव’ शीर्षक सामग्री।

57. चाँद, नवंबर 1926, पृ. 119-122; लाला हरदयाल ने ‘वीभत्स मूर्तियाँ’ के अंतर्गत एक विचारोत्तेजक बात कही है, फ्बहु देवतावादी सनातन धर्मियों को अपने धर्म में सौंदर्योपासना और बुद्धि को प्रश्रय देना चाहिए यदि वे दहोमी और विक्यूनालैंड के आदिम निवासियों के साथ अपनी गणना नहीं कराना चाहते हैं। यदि वे शिव की उपासना करना चाहते हें तो वे कालिदास के ‘कुमारसम्भव’ में वर्णित आदर्श के अनुकूल शिव और पार्वती की मूर्तियाँ स्थापित कर सकते हैं। यह संस्कृति का प्रश्न है, अंध विश्वास का नहीं।”

58. चाँद, फरवरी 1927, पृ. 373

59. चाँद, मई  1927, पृ. 6 

60. वही 

61. चाँद, नवंबर 1927, पृ. 103

62. इससे संबद्ध सामग्री जनवरी 1929, जून 1929 में भी प्रकाशित है। 

63. साइमन कमीशन से संबद्ध एक सूचना फरवरी 1930 के अंक में है। 

64. अप्रैल 1929 का संपादकीय ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ की ज़ब्ती पर है। संपादकीय का शीर्षक है–शीर्षकहीन। इस अंक में पुलिस अधिकारियों से हुआ पत्र-व्यवहार एवं अन्य सामग्री भी है। यह सामग्री अंग्रेजी में है। मई 1929 के अंक में संबद्ध सामग्री अधिक विस्तार से है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की सम्मतियाँ और अधिकारियों से पत्र-व्यवहार की प्रति वहाँ संकलित है। जून 1929 के अंक में संयुक्त प्रांत के डाइरेक्टर ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन द्वारा इसे स्कूल के लिए बंद करने की सूचना प्रकाशित है। (देखें, पृ. 266) उक्त केस का ब्यौरा अप्रैल 1930 के अंक में ‘रंगभूमि’ कॉलम में प्रकाशित है। प्रकाशक पर मुकदमे के खर्च की वसूली के लिए अर्थदंड भी लगाया गया। ‘रंगभूमि’ में वह अंश ‘न्याय का श्राद्ध’ शीर्षक से प्रकाशित है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों ने इस बात पर आपत्ति की कि ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ में एक ओर मुसलमान शासकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है जबकि अंग्रेजों के चरित्र में केवल दोष दिखाए गए हैं। (देखें, पृ. 1015-1019)

65. चाँद, जून 1929, पृ. 263

66. मई 1929 का संपादकीय ‘राष्ट्रीय आंदोलन और सामाजिक सुधार’, जून 1929 का ‘स्वदेशी आंदोलन’, जुलाई 1929 का ‘एक नया चित्र’ (रूस की स्त्रियों पर), अगस्त 1929 का संपादकीय ‘राष्ट्रीय शिक्षा’, सितंबर 1929 का संपादकीय ‘राष्ट्रीय शिक्षा’, अक्टूबर 1929 का संपादकीय ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ शीर्षक से है। ये संपादकीय 1925 के आस-पास आरंभ हुई रीत से भिन्न हैं। इसका प्रभाव ‘चाँद’ के कंटेंट पर भी पड़ता है। ‘चाँद’ के इस नए स्वभाव पर संतराम, बी.ए. ने आपत्ति दर्ज़ की। उनके अनुसार ‘चाँद’ में ‘एक मुस्लिम हृदय’ के नाम से प्रकाशित कहानियाँ और मौलवी जहूरबख्श की रचनाएँ हिंदू स्त्रियों के ‘हृदय पर मुसलमानों का हौआ’ पैदा करती हैं। ये ‘इस्लाम के गुप्त प्रचारक’ हैं और ये अपने लेखों द्वारा हिंदू स्त्रियों को उसी दासत्व में ले जाने कुचेष्टा कर रहे हैं जहाँ मुस्लिम स्त्रियाँ हैं। (देखें, सितंबर 1929, पृ. 593-595)

67. चाँद, दिसंबर 1929, पृ. 413

68. चाँद, जनवरी 1930, पृ. 584-585 के मध्य 

69. वही, पृ. 639 

70. वही, पृ. 639-640 

71. वही, पृ. 641 

72. वही, पृ. 655 

73. वही 

74. जुलाई 1930, अगस्त-सितंबर 1930 एवं अक्टूबर 1930 में यह प्रकाशित नहीं है।

75. चाँद, अगस्त-सितंबर 1930, पृ. 449 

76. वही, पृ. 451 

77. चाँद, अक्टूबर 1930, पृ. 565 

‘स्त्रियों के आदर्श’ शीर्षक कविता इस प्रकार है: 

सिंह पै सवार करवाल लिए संगर में,/चंडिका प्रचंड इनके ही खड़ी दहने।/हाथों में पड़ीं जो चार-चार हथकड़ियाँ तो–/आठ-आठ बेड़ियाँ पगों में बनें गहने।।/दिव्य देवताएँ मातृ-शक्ति की यही हैं–/आज आईं युद्ध क्षेत्र में उतर माएँ बहनें।/घोषणा हुई है, हिंद माता की दशा को देख,/नारियाँ स्वराज्य लें, मरद चूड़ी पहनें!!/अब न रुकेंगी बिना जीते भारतीय जंग,/आगे ही बढ़ेंगी पीछे पग न हटाएँगी।/दो-दो हाथ करके दिखाएँगी स्ववीरता को,/वीर अंबिकाएँ वीर बहनें कहाएँगी।।/रण में उदंचितदृगी हो झुक जाएँगी।/ग़ज़ब करेंगी घोर संगर लड़ेंगी अब,/मरद बनेंगी अब मरदानगी दिखाएँगी।।/यह इंदिराएँ हैं, स्वदेश प्रेम मंदिरों की,/फिर इनकी क्यों न आरती उतारी जाएँ?/यह शक्तियुक्त ऐसे साज से सुसज्जित हों;/इनसे अधीन दीन अबला उबारी जाएँ।।/इनका महत्व इस भाँति वसुधा में बढ़े–/इन पर कोटि शारदाएँ सदा वारी जाएँ।/भाग्यशालिनी हैं इन ही के भेष-भूषा पर/भूरि-भूरि भाव से भवानी बलिहारी जाएँ।

78. चाँद, नवंबर 1930, पृ. 6

79. जवाहरलाल नेहरू छह महीने की कैद से 11 अक्टूबर 1930 को रिहा हुए थे कि 19 अक्टूबर को पुनः पकड़ लिए गए। बिस्मिल इलाहाबादी ने उनके सम्मान में यह रचना लिखी–

सादगी से सादगी के साथ नाता जोड़ कर–/ऐशो इशरत से हमेशा के लिए मुँह मोड़कर।/सारी दुनिया छोड़कर, सारा ज़माना छोड़कर–/चैन अगर लेगा, तो जंजीरे-गुलामी तोड़कर।/इन्कलाबे-जहाँ सब कह रहे हैं हाल के।/जौहरी परखें ज़रा जौहर जवाहरलाल के।।/कोई देखे तो वतन पर किस तरह कुर्बान है,/चलते-फिरते इसको आजादी ही का अरमान है।/सच कहा ‘बिस्मिल’ ने प्यारी आन, प्यारी शान है,/समझो तो है देवता, देखो तो यह इन्सान है!/क्या जवाहरलाल है, सुन लो ज़बाने हाल से।/दो क़दम हर काम में आगे है मोतीलाल से।। 

80. चाँद, नवंबर 1930, पृ. 116

81. वही, पृ. 118-119

82. चाँद, फरवरी 1931, पृ. 413 

83. वही, पृ. 414 

84. वही, पृ. 420 

85. बिस्मिल इलाहाबादी की पंक्तियाँ हैं–

दौलते-दुनिया रही मेहमान मोतीलाल की!

देश-सेवा के लिए थी जान मोतीलाल की! 

यूँ तो दुनिया के समुंदर में कमी होती नहीं_ 

लाखों मोती हैं, मगर उस आब का मोती नहीं !! 

86. चाँद, अप्रैल 1931, पृ. 654 

87. चमनलाल (सं.), क्रांतिवीर भगत सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2012, पृ. 311, 312

88. वही, पृ. 535-536 

89. वही, पृ. 521 

90. चाँद, जनवरी 1933, पृ. 385-386 

91. क्रांतिवीर भगत सिंह, पृ. 523 

92. जितेंद्रनाथ सान्याल बी.ए., अमरशहीद सरदार भगत सिंह, अनुवाद–कुमारी स्नेहलता सहगलए एम. ए., संपादक–आर.सहगल, कर्मयोगी प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, अगस्त 1947 के प्रकाशकीय, ‘प्रकाशक के नाते से’ उद्धृत।

93. ‘चाँद’ के अप्रैल 1929 के अंक में रामरख सिंह सहगल ने लिखा है कि ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ की ज़ब्ती के बाद वे संयुक्त प्रांत के चीफ सेक्रेटरी और होम मेंबर से मिलने लखनऊ गए थे। चीफ सेक्रेटरी कुँवर जगदीश प्रसाद थे और होम मेंबर नवाब छतारी साहब। सरकारी कार्रवाई अपनी जगह, उससे अधिक वे चीफ सेक्रेटरी के व्यवहार से आहत हुए। सहगल लिखते हैं, फ्पुस्तक के ज़ब्त होने का इतना मलाल नहीं है, जितना कुँवर साहब के दुर्व्यवहार का। उन्होंने हमसे ठीक वैसा ही व्यवहार किया, जैसा वे किसी नौकरी की तलाश में जानेवाले व्यक्ति से करते।-----चूँकि लेखक इस प्रकार के व्यवहार का आदी नहीं था, इसलिए वास्तव में कुँवर साहब का दुर्व्यवहार उसे बहुत अखर गया!----इस स्थान पर सरकारी होम मेंबर नवाब साहब छत्तारी की प्रशंसा किए बिना हम नहीं रह सकते। आपका व्यक्तिगत व्यवहार बड़ा प्रशंसनीय था।” (देखें, पृ. 6)

94. अमर शहीद सरदार भगत सिंह, देखें प्रकाशकीय।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र हमें आशुतोष पार्थेश्वर ने उपलब्ध कराए हैं।)



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