गौरव पाण्डेय की कविताएं

 

गौरव पाण्डेय 


पुलिस का नाम आते ही सामान्य तौर पर मन मस्तिष्क में एक सिहरन सी होती है। यह सिहरन भय पैदा करती है। बच्चों को डराने के लिए लोग कहते हैं चुप रहो नहीं तो पुलिस पकड़ ले जायेगी। लोग बाग यह भी कहते हैं पुलिस किसी की नहीं होती। पुलिस किसी को नहीं छोड़ती। हालांकि पुलिस कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और लोगों को निर्भीक निडर बनाने के लिए नियुक्त की जाती है लेकिन आमतौर पर ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। पुलिस किसी भी समस्या को अपनी तरह से सुलझाने का प्रयास करती है। आम जनता के लिए जो पुलिस भय का बायस होती है, नेताओं और अधिकारियों के सामने बेवश, निरीह और लाचार नजर आती है। कवि गौरव पाण्डेय ने पुलिस को केन्द्र बना कर कुछ महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं जिसमें से कुछ के शीर्षक तो वही हैं जो आम जनता के बीच प्रचलित हैं। कुछ अलग तरह की इन कविताओं में गौरव पुलिस को एक सामान्य जनता की नजर से देखते हैं और उसे अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं। आइए आज पहली बार हम पढ़ते हैं गौरव पाण्डेय की कविताएं।



गौरव पाण्डेय की कविताएं



पुलिस रक्षा करती है 


पुलिस रक्षा करती है विधायक जी की

सांसद जी की, माननीय मंत्री जी की

रक्षा करती है पुलिस


किससे?

अपराधियों से? डाकुओं से?

नहीं आम जनता से रक्षा करती है पुलिस


पुलिस रक्षा करती है पूंजीपतियों की

उनके उद्योगों की, उनके बच्चों की

उनके साथ रहती है

बात मानती है

उनके इशारे पर उठती-बैठती है


पुलिस रक्षा करती है लोगों की नहीं मृतकों की

ताकि सरकारी फाइलें गड़बड़ न होने पाएं

कोई बात ऊपर तक न जाए

शांति नजर आए 


पुलिस रक्षा करती है गांव की?

नहीं भाई, दलालों की

जिनसे इनकम होती है

और दरवाजे पर जिनके माठा पीती है

उनकी रक्षा करती है पुलिस 



पुलिस का छापा


दो जीप भर कर पुलिस आई है

पड़ोस में छापा पड़ा है


जिसके यहाँ छापा पड़ा है

वह खपरैल पर चढ़ा है क्योंकि

बादल उमड़ रहे हैं

और बारिश की संभावना है


पुलिस जोर-जोर गाली देते हुए

उसे उतारती है

स्त्रियां बच्चों को घर के भीतर जाने को कहती हैं


वह पूर्व में अपराधी प्रवृत्ति का रहा है

चोरी-छिनैती करता था

अब बुढ़ापे में गाँव में घर बना कर रहता था

किसी अपराध के मामले में पुलिस वाले ले जा रहे थे

हम स्कूल से लौटे ही थे और ड्रेस में ही खड़े

सब चुप देख रहे थे


सुबह के अखबार में इस आपरेशन की न्यूज छपी

कि पुलिस ने छापा मार कल शाम नामी बदमाश

दबोच लिया है 

पुलिस को देख उसने हवा में फायरिंग की

और खेतों की ओर भागा था

मौके पर उसके पास से चार खोखे

दो जिंदा कारतूस

एक देशी तमंचा

और एक किलो गांजा बरामद हुआ है 


जबकि मैं शब्दों की शपथ के साथ कहता हूँ 

ऐसा कुछ नहीं हुआ था।






पुलिस दोस्त


उसने मुझे आवाज देते हुए सुना

और अपनी पल्सर गाड़ी मेरे बगल में रोक दी

उसने हाथ मिलाते हुए मुझसे कहा-

‘बहुत दिन बाद मिले हो

कैसे हो?’


मैंने बताया कि कुछ खास नहीं एम. ए. कर रहा 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से

तुम तो पुलिस बन गए यह खबर थी मुझे

लेकिन तुम्हारा नम्बर शायद बदल गया है


‘कोई बात नहीं’ पुलिसिया रुआब में वह हँसा

हमने पोस्टिंग आदि की बात की

साथ चाय पी


मैंने मज़ाक़ में ही कहा-

“अब तो गाँव में रौब जमाने लगे होगे 

सैलरी के अलावा ऊपरी कमाने लगे होगे ?”


अरे भइया! वह ऐसे बात करने लगा

जैसे मेरा दोस्त न हो

जैसे सिपाही न हुआ हो

कोई तोप हो


वह हवा में डंडे फटकारने लगा

न्याय, क़ानून, रक्षा, चुनौती, व्यवस्था

और न जाने क्या-क्या झाड़-फूंक मन्त्र की तरह

जोर-जोर बड़बड़ाने लगा


तभी अचानक से उसे याद आया

आज ही निकलना है

मंत्री जी के नए गेस्टहाउस की दो दिन बाद ओपनिंग है

और सारी सुरक्षा व्यवस्था उसे ही देखनी है।



पुलिस वेरीफ़िकेशन


नौकरी मिली थी

कोई अपराध नहीं किया था

चौकी से सिपाही ने फ़ोन किया- ‘आ जाइए’


मैंने कोई चोरी नहीं की थी

मैंने कोई लड़की नहीं छेड़ी थी

मैंने कोई ज़मीन नहीं कब्जा की थी

मैंने याद किया मेरे पिता ने तो कुछ नहीं किया

आश्वस्त हुआ यह सोच कर कि वह तो उम्र भर

प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते जीविका चलाते रहे

कभी कोई झगड़ा भी नहीं हुआ 


मैं सोच रहा था आख़िर कौन सा नुख़्स हो सकता है

जिसकी वजह से मेरे सत्यापन में बाधा आएगी

और मुझसे रुपये की माँग की जाएगी

मैं चौकी जाते हुए डरा तो नहीं था लेकिन

असहज जरूर था


मैंने फ़ोन करने वाले सिपाही से बहुत विनम्रता से कहा

सर, यह दूसरी बार है जब मैं चौकी आया हूँ

पहली बार फ़ोन खोने की सूचना देने आया था

ताकि उसी नम्बर की दूसरी सिम ले सकूँ

सिपाही मेरी असहजता को समझ गया

और मुस्कुराया

चौकी के बाहर अपने कमरे में ले गया


उसने कहा ‘प्रोफेसर साहब’

यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है

फिर नौकरी के प्रासेस की बात की

फिर मेरे गाँव की ख़राब छवि की बात करते हुए

मिठाई और कागज जल्दी से रजिस्ट्री करवाने के खर्चे की माँग की


मैं पहले से तैयार था पाँच सौ की एक नोट आगे बढ़ाई

कहा लीजिए खाइए और खिलाइए मिठाई

उसने कहा चौकी से थाने तक

मिठाई जाती है साहब

कुछ और बढ़ाइए


मैंने एक और नोट बढ़ाया तो सिपाही मुस्कुराया

इस तरह मेरा मामला हल हुआ

जानकार कहते है बहुत सस्ते में पुलिस सत्यापन

तुम्हारा सफल हुआ…



पुलिस का न्याय


दो भाइयों के बीच न्याय की लड़ाई है

कोई किसी का हिस्सा दबा रहा है

कोई माँ का जेवर नहीं

बता रहा है 


बात पुलिस तक चली गयी है

पुलिस न्याय कर रही है


रामू को सुबह चौकी बुला रही है

श्यामू को शाम को


रामू की पीठ पर न्याय लिखा है

श्यामू के पिछवाड़े पर

मुहर लगी है


दरोगा के क्वार्टर के सामने

नयी स्कूटी खड़ी है!





पुलिस का समझौता 


एक स्त्री जली है

चारों ओर पुलिस खड़ी है


मृतक की माँ चीख-चीख ससुराल वालों को

गरिया रही है, ब्याह यहाँ क्यों किया रे!

कह-कह पछता रही है


पति दरोगा को बता रहा है-चूल्हे से आग

साड़ी में लगी है, जब चाय बना रही थी

उसे कोई अंदेशा नहीं था

पाँच मिनट पहले उसने ही चीनी लेने

दुकान भेजा था


पुलिस मृतक के पिता को कोने में ले जा रही है

वह अब क्या चाहते हैं पूछ रही है

देर तक समझा रही है

दोनों पक्ष को इकट्ठा कर रही है

पति को बुरा-भला कहती है

सब एक तरफ़ से जेल जायेंगे कहते हुए

ससुराल पक्ष को धमका रही है

मृतक की माँ

किसी भी तरह तैयार नहीं हो रही

कोई समझौता नहीं हो सकता बता रही है 


दरोगा के पास लड़के पक्ष के बहुत फ़ोन आ रहे है

समझौते का दबाव बना रहे हैं 

घंटों की उथल-पुथल के बाद गुपचुप खबर आती है

कि पुलिस ने समझौता करा दिया है

पाँच लाख मृतक के पिता को 

और चूँकि बात ऊपर तक चली गई है इसलिए

एक लाख पुलिस को ससुराल पक्ष ने देना कबूल किया है 


एक स्त्री के रोने की आवाज नेपथ्य से अब भी आ रही है 

अर्थी उठने जा रही है…



पुलिस ख़ुद की सगी नहीं


एक पुलिस निरीक्षक के साथ काम करने का अवसर मिला

मुझे याद है किसी सवाल के जवाब में 

उन्होंने मुझसे कहा था- “बै महराज

यह तो कुछ नहीं है

पुलिस लत्ते को साँप कर देती है

यह कहावत ऐसे ही नहीं है

यही एक ऐसी बिरादरी है जो ख़ुद की

सगी नहीं है ।”




पुलिस की स्मृति: 1995-96


ठीक से याद नहीं पहली बार पुलिस मैंने कब देखी

बस एक दृश्य याद आता है

जिसमें एक सिपाही से रोते हुए पूछ रहा हूँ कि 

क्या वे मेरे पिता को पकड़ ले जायेंगे

और जेल में बंद कर देंगे ?


मेरे पिता ने कुछ नहीं किया है और मैं परेशान न होऊँ

ऐसा गाँव का एक बूढ़ा आदमी मुझसे कहता है 

गाँव के कुछ लोग खलिहान में एकत्रित हैं

और पिता ढाई सौ रुपये महीने के हिसाब से

बगल के गाँव के स्कूल में पढ़ाते हैं

अभी वहीं से चले आ रहे हैं 


पिता कहते हैं कि उन्हें नहीं पता कि हमारे खलिहान में

दूसरे के खेत से गेहूँ के बोझ रात में किसने रख दिए हैं

वह तो सुबह स्कूल चले गए थे और

अभी सीधे स्कूल से आ रहे हैं

उन्हें कुछ पता नहीं


पिता जानते थे कि यह काम कोई और नहीं

हमारे पट्टीदारों के लड़कों ने किया है लेकिन

पिता उनका नाम नहीं ले सकते थे 


गाँव के लोगों ने पिता के पक्ष में एक स्वर में

आवाज़ उठाई थी और कहा था

विनोद के जैसा पूरे गाँव में कोई है ही नहीं

इन्हें फँसाया जा रहा है


पुलिस का कहना था कि ‘तुम्हारा खलिहान है

तो बताओ किसने रखा है या चौकी चलो

वहाँ तो सब बताओगे ही’


पिता मुझे देखते हैं मैं रुआंसा उनके सामने खड़ा था

वह सिपाही से दुहराते हैं वही बात-

‘उन्हें नहीं पता’


पुलिस भी जान गई थी यह बात

लेकिन मान नहीं रही थी

मुझे ठीक से याद है

जब पट्टीदारों ने ख़ुद को बचाने के लिए

सात सौ रुपये दिए थे दरोगा को किनारे ले जाकर 

तब मानी थी पुलिस


पाठकों पुलिस की पहली स्मृति

मेरी यही थी।


(पिता बताते हैं कि बाद में जितने भी छ-सात लोग उस में शामिल थे पुलिस ने धीरे-धीरे सबको पकड़ा था और सबसे सौ-दो सौ लिया था और छोड़ दिया था )



परिचय:


गौरव पाण्डेय 

प्रकाशन- ‘धरती भी एक चिड़िया है’ कविता संग्रह 2021 में साहित्य अकादमी से और ‘स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी’ (2023) सेतु प्रकाशन से

*[कविता संग्रह ‘स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी के लिए “साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार 2024” ]

॰ हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्प्रति:


सहायक आचार्य हिन्दी,

गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय कर्वी, चित्रकूट

पिन- 210205


मोबाइल  6306813815

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