चैतन्य नागर



आम तौर पर जहां लोग देश और दुनिया के तमाम राजनीतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संकटों का कारण और समाधान बाहरी तरीकों और माध्यमों में ढूंढते हैं, वहीं चैतन्य इनकी मनौवैज्ञानिक जड़ों और उपचारों की पड़ताल में लगे रहते हैं। उनका मानना है कि सार्वजनिक बदलाव की कोई भी कोशिश तभी कामयाब होगी जबकि वह बदलाव व्यक्ति के स्तर पर हो, और व्यक्ति में परिवर्तन के लिए बीजों का रोपण प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही किया जाए। वह मौजूदा शिक्षा प्रणाली को आज की अधिकतर समस्याओं का जनक मानते हैं। चैतन्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखते हैं। कविता उन्हें भाती है और जीवन के मूल प्रश्नों पर जगह-जगह होने वाली रिट्रीट, गैदरिंग में कोऑर्डिनेटर, वक्ता की हैसियत से भाग लेते हैं । पत्रकार, शिक्षक, प्रकाशक रह चुकने के बाद आजकल चैतन्य नागर कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया, राजघाट, वाराणसी के स्टडी सेंटर के ज्वाइंट हेड हैं। वह जे. कृष्णमूर्ति प्रज्ञा परिषद के सदस्य, अनुवाद और प्रकाशन प्रकोष्ठ के प्रभारी, और 'स्वयं से संवाद' न्यूजलेटर के संपादक भी हैं ।

 प्रेम एक अनुभूत सत्य होता है। प्रेम पर बेहतर कविता तभी लिखी जा सकती है जब उसके अनुभूति की नदी हमारे अन्तःस्थल में प्रवहित एवं प्रसरित हो। हमारे इस बार के कवि चैतन्य नागर ने प्रेम में पगी कुछ ऐसी ही कवितायें लिखीं हैं जिसे पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। 






1. 
अपनी तपती हथेलियों को रख दो
मेरे हाथों में
और देखो इस ऊँचे पर्वत-से बरगद को

इसपर बैठे छोटे छोटे कई परिंदों को

ये परिंदे नहीं
बरगद हैं
कई बरगद
छोटे छोटे
एक बड़े परिंदे की पांखों पर उगे हुए

बस देखो इन्हें
और पिघल जाने दो
अपनी हथेलियों को
मेरे हाथों में



2.

भागती दौड़ती
पसीने बहाती यह देह
बाज़ार हाट घूमती
किसी न किसी के साथ बझी हुई
बस दिखती है बाहर से उलझी हुई, फँसी हुई

भीतर से हूँ हमेशा की तरह खाली
हर पल
एक एक रक्त कणिका
हर एक रोयाँ
बूँद बूँद खाली हूँ
सांस सांस खाली


3. 

ये हैं मेरे प्रेम गीत
तुम्हारी खिली हुई देह के लिए लिखे मेरे प्रेम गीत
इन्हें संभाल कर रख लेना
अपनी ठोस देह की दराजों में
अपनी गुनगुनी त्वचा की तहों में
अपने दौड़ते-भागते गर्म रक्त की शिराओं में
बहने देना इन्हें
तुम्हारे चमकते माथे पर
सजाने के लिए लिखे हैं ये गीत
इन्हें लगा लेना उबटन की तरह
अपने चमकते धूप-से जिस्म पर

इन्हें वहां मत रखना
अपने अतृप्त, बे-रीढ़ मन के भुरभुरे कोनो में
समय की अगली बारिश में घुल जाने के लिए



4.

नगरकोट की कुरकुरी सर्दी
सुबह-सुबह
तुम्हारे कांपती देह की आड़
 में उगता सूरज

तुम्हारी ठिठुरती उंगलियाँ
मेरी हथेलियों में
गुनगुना रही हैं

एक सूरज खिल रहा है
तुम्हारी आँखों में
एक सुबह जन्म ले रही है
तुम्हारी शिराओं में कहीं

अचंभित हूँ
उगते सूरज
रंग बदलती घाटियों
और तुम्हारी खिलती मुस्कान के बीच के
अबूझ सम्बन्ध को देख कर



5. 

जंगलों के पास चुपचाप बहती नदी
कुछ कहती है
अपनी नीरवता में ही
कोई गीत बुनती है

नीम की पत्तियों पर
ठहरा हुआ अँधेरा
बिलकुल करीब जाने पर ही सुनाई देता है
अपनी कांपती उँगलियों से
उसकी जड़ों को कभी भी
छू लेगी नदी

कैसे मचल उठती थी तुम इस नदी से मिलकर
रातों को जाग कर बेचैन होती थी
सुनकर इसका संगीत
पूछती है नदी अब तक तुम्हारे बारे में
कैसी नींद में सो गयी वह
किन मेलों में खो गयी
कब सूख गया उसकी आँखों का पानी
मेरी तरह बहती, उस सुलगती-सी लड़की की आँखों का पानी

 
6. 

तुमने मुझे गर्म चाय दी
मैंने पी ली
तुमने तह की हुई शर्ट दी
मैंने उसे पहन लिया
तुमने अखबार दिया
मैंने पढ़ लिया मैंने कहा "मैं जा रहा हूँ"
तुम नम आँखों के साथ चुपचाप बैठी रही
प्रेम इतना सरल, उदास कितना निःशब्द होता

संपर्क-
ई-मेल  chaitanya.nagar@facebook.com

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